परम वन्दनीय श्रीगोलोकधाम में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के अद्भुत प्रेम से सन्तुष्ट होकर वरदानस्वरूप श्रीगिरिराज पर्वत का प्राकट्य कर अपनी माया के माध्यम से व्रज क्षेत्र में स्थापित कर दिया। आगे चलकर यह स्थान श्रीगोवर्धनग्राम के नाम से प्रसिद्ध होकर पूज्य एवं पवित्र तीर्थ बन गया।
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श्रीगिरिराज पर्वत
श्रीकृष्ण के भूमण्डल पर अवतरण के पश्चात् इस श्रीगिरिराज पर्वत ने उनकी दिव्य लीला में उस समय प्रवेश किया, जब देवराज इन्द्र के प्रकोप से व्रजवासियों की रक्षा तथा इन्द्र देव का अभिमान तोड़ने हेतु निरन्तर सात दिनों तक वे भगवान्की एक अँगुली पर छत्र रूप में विराजमान रहे। इन्द्र के पराजित होनेपर श्रीनन्दबाबा सहित समस्त ग्वाल बाल, गोप गोपिकाओं और स्वयं श्रीकृष्ण ने भी इन्हें छप्पन प्रकार के भोग अर्पणकर पूजा-अर्चना के साथ इनकी परिक्रमा की थी।
उसी समय से यह गोवर्धनग्राम पवित्र तीर्थधाम बन गया। भारत के सभी प्रदेशों से आकर लाखों भक्तगण श्रीगिरि गोवर्धन की नंगे पैर चलकर तथा दण्डवत् प्रणाम करते हुए सात कोस (लगभग बाईस किलोमीटर) की परिक्रमाकर अपने जीवन को धन्य करते हैं।
ग्राम के बीच में स्थित मानसीगंगा में स्नानकर, श्रीगोवर्धननाथ जी के मन्दिर में ठाकुर जी का फूल-मालाओं तथा दूध से अभिषेककर दान घाटी से परिक्रमा में प्रवेश करते हैं।
दानघाटी की गाथा
एक समय की बात है, श्री राधा जी अपनी सखियों के संग गोविन्दकुण्ड पर ऋषियों द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ के लिये घी और शहद से भरे कलश सिरपर रखकर उसी ओर जा रही थीं। मार्ग में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से आगे जाने के लिये दान माँगा। श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को अनेक प्रकार से समझाया कि वे यह सामग्री यज्ञ भगवान्को अर्पित करने जा रही हैं, इसमें जूठन नहीं पड़ा करती, परंतु इनके तर्क को नकारकर श्रीकृष्ण अपने हठपर अड़े रहे। विलम्ब होते देख श्रीराधा ने अपना कण्ठहार दानस्वरूप देकर समझौता कर लिया।
कहा जाता है कि इस लीला के माध्यम से व्रज में उनका यह प्रथम मिलन था। यहाँ से परिक्रमा में प्रवेशकर ढाई किमी० की दूरी पर आन्यौर ग्राम पारकर भगवान् की लीलाओं के मुख्य साक्षी संकर्षणकुण्ड, गौरीकुण्ड, नीपकुण्ड, गोविन्दकुण्ड तथा गन्धर्वकुण्ड होते हुए यात्री श्रीगणेश मन्दिर, श्रीगिरिराज मन्दिर, नृसिंह मन्दिर के दर्शन करते हुए पूछरी ग्राम में पहुँचते हैं।
पूछरी
यहाँ श्रीकृष्ण के प्रिय सखा लौठाजी का मन्दिर है। कहा जाता है कि लौठाजी ने सदा-सर्वदा व्रज में निवास करने की इच्छा प्रकट की थी। अपने सखा की इच्छा पूर्ण होने का वरदान देते हुए श्रीकृष्ण ने उन्हें भजनाविष्ट-अवस्था में इसी स्थानपर स्थापित कर दिया था।
इस मन्दिर के समीप नृसिंहदेव मन्दिर, अप्सराविहारी तथा कुण्डेश्वर महादेव जी के मन्दिर दर्शनीय हैं। इन्हीं के मध्य में अप्सराकुण्ड है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र ने जब श्रीकृष्ण का अभिषेक किया था, उस समय स्वर्गलोक से अप्सराओं ने आकर इसी स्थानपर नृत्य किया था। इस कुण्ड के समीप नवलकुण्ड शोभायमान है।
यहाँ से थोड़ा आगे गिरिराज के शिखरपर श्रीदाऊ जी का मन्दिर है। इसमें एक शिलापर सातवर्षीय श्रीकृष्ण के चरणचिह्न अंकित हैं।
यहींपर सुरभिकुण्ड तथा ऐरावतकुण्ड हैं। इसी के समीप कदम्बखण्डी विराजमान है। कहा जाता है कि प्रिया-प्रियतम इस स्थानपर रास रचाया करते थे।
जतीपुरा ग्राम
परिक्रमा मार्ग में अग्रसर होते हुए जतीपुरा ग्राम में मुखारविन्द के दर्शन होते हैं। यहाँ से माडकुण्ड, बिलछुकुण्ड तथा सूरजकुण्ड होते हुए गोवर्धन ग्राम पहुँचते है।
गोवर्धन ग्राम
गोवर्धन ग्राम पहुँचकर श्रीराधाकुण्ड की परिक्रमा में प्रवेश करते हैं। गोवर्धन के मुख्य बाजार में प्रवेशकर श्रीमानसी गंगा के दर्शन करते हुए श्रीराधाकुण्ड की ओर अग्रसर होते हैं। चलते-चलते सखीकुण्ड और श्रीराम-आश्रम के मध्य में गोशाला के दर्शन करते हुए अनेकों प्राचीन मन्दिरों की परिक्रमाकर माल्हारी एवं शिवोधरकुण्ड होते हुए प्रसिद्धतम श्रीगौड़ीयमठ, श्रीरघुनाथगोस्वामी की समाधि प्रभुकुंज, भानुपोखर, बलरामकुण्ड, ललिताकुण्ड, गोपकुआँ, बनखण्डीमहादेव तथा मदनमोहन-मन्दिर के समीप स्थित श्रीराधाकुण्ड और श्रीकृष्णकुण्डके दर्शन प्राप्त होते हैं।
श्रीकृष्णकुण्ड तथा श्रीराधाकुण्ड की उत्पत्तिकथा
श्रीकृष्णकुण्ड
एक समय की बात है, श्रीकृष्ण के प्राण हरने की दृष्टि से कंस ने वृषासुर (अरिष्टासुर) नामक दैत्य को व्रज में भेजा था, जिसके मुख की आकृति बैल (गोवंश) जैसी थी। श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया और थकान मिटाने के लिये रास करने की इच्छा हुई। उन्होंने श्रीराधा का स्मरण किया, श्रीराधा अपनी सखियों के संग श्रीकृष्ण के पास पहुँच गयीं। उन्होंने रासनृत्य का प्रस्ताव किया, परंतु श्रीराधा ने वृषरूपधारी का वध करने का पाप श्रीकृष्ण पर लगाकर रास में भाग लेना अस्वीकार कर दिया।
श्रीकृष्ण द्वारा इस पाप से मुक्ति का उपाय पूछने पर श्रीराधा ने कहा – पृथ्वी के समस्त तीर्थों में स्नान करने से इस पाप से मुक्ति मिल सकती है। श्रीकृष्ण ने उसी समय समस्त तीर्थों को प्रकट होने का आदेश दे, अपने चरणाघात से एक कुण्ड का निर्माणकर इन तीर्थों को उसमें प्रवेश करा दिया। तत्पश्चात् उसमें स्नानकर श्रीकृष्ण पापमुक्त हुए। इस कुण्ड का नाम श्रीकृष्ण के नामपर ‘कृष्णकुण्ड’ रखा गया।
श्रीराधाकुण्ड
श्रीराधारानी की सखियों ने इस कुण्ड के समीप एक और कुण्ड के निर्माण का विचार श्रीराधा के समक्ष रखा। श्रीराधा ने अपनी सखियों की इच्छा का सम्मान करते हुए अपने अँगूठे के नख से पृथ्वीमाता की मिट्टी खुरच-खुरचकर एक कुण्ड का निर्माण कर दिया। सखियों ने इसका नाम ‘राधाकुण्ड’ रख दिया। श्याम (कृष्ण) कुण्ड में विराजमान समस्त तीर्थों ने श्रीराधारानी से उनके द्वारा निर्मित कुण्ड में स्थायी निवास करनेकी प्रार्थना की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीराधा ने उन तीर्थों को अपने कुण्ड में स्थायी निवास करनेकी आज्ञा प्रदान कर दी।
भक्तों का विश्वास है कि आज भी समस्त तीर्थ इस कुण्ड में विराजमान हैं। श्रीराधाकुण्ड में स्नान करने से समस्त तीर्थों में स्नान करने का पुण्यलाभ मिलता है।
यहाँ से परिक्रमा में आगे चलते हुए जगद्धात्री देवीमन्दिर, ग्वालियर-मन्दिर तथा हनुमत्-मन्दिर होते हुए कुसुमसरोवर के दर्शन प्राप्त होते हैं।
कुसुमसरोवर
यह सरोवर श्रीराधाकृष्ण की दिव्य लीलाओं का साक्षी है। उस समय यह क्षेत्र विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे सुगन्धित पुष्पों से सुशोभित उद्यानों से घिरा हुआ था। यहाँ श्रीकृष्ण अपनी प्राणेश्वरी श्रीराधा के शृंगार के लिये मालाएँ गूँथा करते थे और श्रीराधा भी अपने मोहन के लिये पुष्पहार बनाया करती थीं।
इस सरोवर की शोभा के साथ-साथ विशाल गुम्बदों में परिलक्षित चित्रकारी के माध्यम से श्रीराधाकृष्ण की दिव्य लीलाओं के दर्शन होते हैं। इन गुम्बदों के मध्य में नीचे शिलापर श्रीराधाचरण के भी दर्शन होते हैं। इस सरोवर के बायें तटपर उद्धवघाट स्थित है, जहाँ व्रजगोपियों की चरणरज प्राप्ति हेतु गुल्मलतारूप में श्रीउद्धवजी भजनाविष्ट-अवस्था में आज भी विराजमान हैं।
श्रीगिरिराज गोवर्धनपरिक्रमा के अन्तिम चरण की ओर अग्रसर होते हुए यात्रीगण घने वनों और उपवनों के मध्य बाबा गोरधननाथजी के संग-संग चलते हुए परम पवित्र श्रीनारदकुण्ड के दर्शन करते हुए सन्तनिवास हरी गोकुल, कल्लोलकुण्ड तथा श्रीराधामदनमोहन-सेवा आश्रम और उसके समीपस्थित श्रीहनुमत्-मन्दिर को प्रणाम करते हुए दानघाटी, गोवर्धनग्राम पहुँचकर परिक्रमा पूर्ण करते हैं।
परिक्रमा पूर्ण होनेपर श्रीमानसी गंगा में स्नान तथा दानघाटी स्थित श्रीगोरधननाथ-मन्दिर में ठाकुरजी का दूध से अभिषेक करने का विशेष महत्त्व है।