भगवान् विष्णु के दशावतारों में वराहावतार की स्वरूपभूता महाशक्ति ही भगवती वाराही हैं। इन्हें भगवती वार्त्ताली भी कहा जाता है।
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श्रीवाराही देवी मन्दिर
इनके अनेकानेक प्राचीन मन्दिर प्राप्त होते हैं। वाराणसी के पक्के मोहालमें, गंगातट पर स्थिति मन्दिर (मानमन्दिर-घाट के उत्तर में म०नं० डी० १६/८४)- के तहखाने में भगवती वाराही की दिव्य, भव्य मूर्ति का दर्शन करते नेत्र तृप्त नहीं होते। वास्तव में यह बड़ा प्राचीन तथा सिद्ध स्थान रहा है, जिसकी सम्पूर्ण भूमि से एक विचित्र ज्योत्स्ना प्रस्फुटित होती रहती है।
श्रीवाराही देवी का स्वभाव
वाराही बड़ी प्रचण्ड तथा उग्र देवता हैं। देवी परिवार में देवी सेना की ये सेनापति हैं। अतएव इन्हें दिन-रात अवकाश नहीं है। इनके पूजन का समय प्रातः चार बजे से छः बजे तक का ही है। इनका बीज-मन्त्र है-‘ऐं ग्लौं।’
भगवती श्रीवाराही के बारह नाम
इनके बारह नामों का नित्य श्रद्धापूर्वक पाठ करने से संसार में बड़ा से बड़ा संकट नष्ट हो जाता है। वे बारह नाम इस प्रकार हैं –
- पंचमी
- दण्डनाथा
- संकेता
- समयेश्वरी
- समय-संकेता
- वाराही
- क्षेत्रिणी
- शिवा
- वार्त्ताली
- महासेना
- स्वाज्ञाचक्रेश्वरी तथा
- अरिघ्नी।
मुने! ये बारह नाम बताये गये हैं। द्वादश नाममय इस वज्रपंजर के मध्य में रहनेवाला मनुष्य कभी संकट में पड़ने पर दुःख नहीं पाता है।* वाराही के ये बारह नाम बहुत कम लोगों को ज्ञात हैं। इनके पाठ से बड़ा लाभ होता है।
वाराही-पृथ्वीदेवी
भगवान् विष्णु के तीसरे अवतार का नाम वाराह है। वाराहभगवान्ने प्रलयकाल में हिरण्याक्ष असुर को मारकर रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था। यज्ञ वाराह की अर्द्धांगिनी ये वाराही देवी ही पृथ्वी हैं। भागवत आदि पुराणों के अनुसार वाराही तथा पृथ्वी, दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। इन शब्दों की वाच्यार्थस्वरूपा एक ही महादेवी हैं। वाराही अथवा पृथ्वीदेवी ही सर्वाधारा तथा सर्वबीजस्वरूपा हैं। संसार की सम्पूर्ण शक्ति इनके हाथों में है। इनकी उपासना से समस्त सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है।
इनका वर्ण शुक्ल है, ये श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं। जड़ी-बूटियों का स्वामी चन्द्रमा है, अतएव चन्द्रमा के समान इनका श्वेत वस्त्र है। श्वेत स्वच्छ वस्त्र निर्मल धर्म का भी द्योतक है। संसार के सब वैभवों का प्रतीक कमल इनके हाथों में शोभित है।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।६१ ।४)- में आता है –
सर्वौषधियुता देवी शुक्लवर्णा ततः स्मृता।
धर्मवस्त्रं सितं तस्याः पद्मं चैव तथा करे॥
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।६१ । १-३)-के अनुसार भगवती वाराही चतुर्भुजा हैं। इनके एक हाथ में रत्नपात्र है और दूसरे में अन्नपात्र। तीसरे हाथ में ओषधिपात्र है तथा चौथे हाथ में कमल है। इनकी कान्ति शुक्ल है और ये रत्नजटित अलंकारों से विभूषित हैं। लिखा है-
शुक्लवर्णा मही कार्या दिव्याभरणभूषिता।
चतुर्भुजा सौम्यवपुश्चन्द्रांशुसदूशाम्बरा।।
रत्नपात्रं शस्यपात्रं पात्रमौषधिसंयुतम्।
पद्मं करे च कर्त्तव्यं भुवो यादवनन्दन।।
आराधना का क्रम
वाराही अर्थात् पृथ्वी देवी को यह अत्यन्त अप्रिय है कि दीपक, कर्पूर, पूजाका पुष्प, देव-मूर्ति, शिवलिंग, शालग्राम-शिला तथा उसका जल, जप की माला, रत्न, सुवर्ण, शंख, मुक्ता, रत्न, माणिक्य तथा यज्ञोपवीत आदि को नग्न भूमि पर बिना आसन बिछाये रखा जाय। अक्षत का ही आसन क्यों न हो, उसका रहना अत्यन्त आवश्यक है।उक्त वस्तुओं को आसन-रहित भूमि पर रखना बड़ा भारी पाप है। इस प्रकार रखी गयी पूजन-सामग्री का कोई फल नहीं होता। गोरोचना, चन्दन, तुलसीदल, पुस्तक आदि को भी भूमिपर नहीं रखना चाहिये।
भगवती वाराही ने वाराह भगवान्से कहा है कि ‘मैं आपकी आज्ञा से सबका भार वहन कर सकती हूँ, पर ऊपर लिखी वस्तुओं का (जो भूमि पर रखी गयी हों) नहीं।’ भगवान्ने स्वीकार किया कि ‘जो लोग इस प्रकार अर्चन, अर्पण करते हैं, वे सौ दिव्य वर्षों तक नरक भोगेंगे।”*
* पञ्चमी दण्डनाथा च संकेता समयेश्वरी। तथा समयसंकेता वाराही क्षेत्रिणी शिवा ।
वार्त्ताली च महासेना स्वाज्ञाचक्रेश्वरी तथा। अरिहनी चेति सम्प्रोक्तं नामद्वादशकं मुने॥
नामद्वादशधाभिख्यवज्रपञ्जरमध्यगः । संकटे दुखमाप्नोति न कदाचित्तु मानव: ॥
वाराही-पूजन
वाराही देवी का सर्वप्रथम पूजन भगवान् वाराह ने किया। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार देवपूजिता वाराही पृथ्वीकी अधिष्ठात्री देवी हैं।
क्षित्यधिष्ठात्री देवी सा वाराही पूजिता सुरैः।
वाराह के बाद ब्रह्मा ने, फिर राजा पृथु ने और अन्त में मनुओं ने इनका पूजन किया। भगवान् विष्णु ने इनका मन्त्रसहित पूजन किया। वह मन्त्र यह है- ‘ॐ ह्रीं श्रीं वसुधायै स्वाहा‘ इस मन्त्रके जप, ध्यान तथा स्तवनसे सम्पूर्ण मनः- कामना सिद्ध होती है। इनके निग्रहाष्टक, अनुग्रहाष्टक प्रसिद्ध एवं प्रभावी हैं।
भगवती का एक स्तवन इस प्रकार है –
यज्ञशूकरजाया त्वं जयं देहि जयावहे।
जयेऽजये जयाधारे जयशीले जयप्रदे॥
सर्वाधारे सर्वबीजे सर्वशक्तिसमन्विते।
सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे भवे॥।
सर्वशस्यालये सर्वशस्याढ्ये सर्वशस्यदे।
सर्वशस्यहरे काले सर्वशस्यात्मिके भवे॥
मङ्गले मङ्गलाधारे मङ्गल्ये मङ्गलप्रदे।
मङ्गलार्थे मङ्गलेशे मङ्गलं देहि मे भवे॥
भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे।
भूमिपाहंकाररूपे भूमिं देहि च भूमिदे॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय ८)
भगवान् विष्णु बोले-विजय की प्राप्ति करानेवाली वसुधे! मुझे विजय दो। तुम भगवान् यज्ञवराह की पत्नी हो। जये! तुम्हारी कभी पराजय नहीं होती है। तुम विजय का आधार, विजयशील और विजयदायिनी हो। देवि! तुम्हीं सबकी आधारभूमि हो। सर्वबीजस्वरूपिणी तथा सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न हो। समस्त कामनाओं को देनेवाली देवि! तुम इस संसार में मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु प्रदान करो। तुम सब प्रकार के शस्यों का घर हो। सब तरह के शस्यों से सम्पन्न हो। सभी शस्यों को देनेवाली हो तथा समय-विशेष में समस्त शस्यों का अपहरण भी कर लेती हो। इस संसार में तुम सर्वशस्यस्वरूपिणी हो। मंगलमयी देवि! तुम मंगल का आधार हो।
मंगल के योग्य हो। मंगलदायिनी हो। मंगलमय पदार्थ तुम्हारे स्वरूप हैं। मंगलेश्वरि! तुम जगत्में मुझे मंगल प्रदान करो। भूमे! तुम भूमिपालों का सर्वस्व हो, भूमिपालों की परम आश्रयभूता हो तथा भूपालों के अहंकार का मूर्त्तरूप हो। भूमिदायिनी देवि! मुझे भूमि दो।
ध्यान के बाद स्तवन और स्तवन के बाद फलश्रुति का पाठ आवश्यक है। फलश्रुति (१८।९) इस प्रकार है –
इदं स्तोत्रं महापुण्यं तां सम्पूज्य च यः पठेत्।
कोट्यन्तरे जन्मनि स सम्भवेद् भूमिपेश्वरः।
भूमिदानकृतं पुण्यं लभेत पठनाज्जनः।
भूमिदानहरात् पापान्मुच्यते नात्र संशयः॥
भूमौ वीर्यत्यागपापाद् भूमौ दीपादिस्थापनात्।
पापेन मुच्यते प्राज्ञः स्तोत्रस्य पठनान्मुने॥
अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः॥
यह स्तोत्र परम पुण्यमय है। जो पुरुष पृथ्वी का पूजन करके इस का पाठ करता है, उसे कोटि-कोटि जन्मों तक भूपाल-सम्राट् होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। इस स्तोत्र के पाठ से मनुष्य भूमिदान के पुण्य का भागी होता है और भूमिदान के अपहरण से होनेवाले पाप से छुटकारा पा जाता है, इसमें संशय नहीं है। मुने! इस स्तोत्र के पाठ से विद्वान् पुरुष भूमि पर वीर्यत्याग करने और भूतलपर दीप आदि रखने के पाप से मुक्त हो जाता है। उसे सौ अश्वमेध यज्ञों का पुण्य प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। आज के संकट-कालीन युग में वाराही अर्थात् भगवती वसुधा का पूजन नितान्त आवश्यक तथा वाञ्छनीय है।