सर्वतीर्थमयी विश्वनाथपुरी काशी त्रैलोक्य मङ्गल भगवान् विश्वनाथ एवं कलि-कल्मषहारिणी भगवती भागीरथी के अतिरिक्त अगणित देवताओं की आवास भूमि है। यहाँ कोटि-कोटि शिवलिङ्ग चतुष्यष्टियोगिनियाँ, षट्पश्चाशत विनायक, नव दुर्गा, नव गौरी, अष्ट भैरव, विशालाक्षीदेवी प्रभृति सैकड़ों देव-देवियाँ काशीवासीजनों के योग-क्षेम, संरक्षण, दुरित एवं दुर्गति का निरसन करते हुए विराजमान हैं। इनमें द्वादश आदित्यों का स्थान और माहात्म्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
उनका चरित्र-श्रवण महान् अभ्युदय का हेतु एवं दुरित और दुर्गति का विनाशक है। यहाँ साधकों के अभ्युदय के लिये द्वादश आदित्यों का संक्षिप्त माहात्म्य-चित्रण कथा रूपमें प्रस्तुत किया जा रहा है-
Contents
लोलार्क
किसी समय भगवान् शिव को काशी का वृत्तान्त जानने की इच्छा हुई। उन्होंने सूर्य से कहा-सताध्च! तुम शीघ्र वाराणसी नगरी में जाओ। धर्म मूर्ति दिवोदास वहाँ का राजा है। उसके धर्मविरुद्ध आचरण से जैसे वह नगरी उजड़ जाय, वैसा उपाय शीघ्र करो; किंतु राजा का अपमान न करना। भगवान् शिव का आदेश पाने के अनन्तर सूर्य ने अपना स्वरूप बदल लिया और काशी की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने काशी पहुँचकर राजा की धर्म-परीक्षा के लिये विविध रूप धारण किये एवं अतिथि, भिक्षु आदि बनकर उन्होंने राजा से दुर्लभ-से-दुर्लभ वस्तुएँ माँगीं, किंतु राजा के कर्तव्य में त्रुटि या राजा की धर्म-विमुखता की गन्ध तक उन्हें नहीं मिली।
उन्होंने शिव जी की आज्ञा की पूर्ति न कर सकने के कारण उनकी झिड़की के भय से मन्दराचल लौट जाने का विचार त्यागकर काशी में ही रहने का निश्चय किया। काशी का दर्शन करनेके लिये उनका मन लोल (सतृष्ण) था, अतः उनका नाम ‘लोलार्क’ हुआ।
वे गङ्गा-असि-संगम के निकट भद्रवनी (भदैनी) में विराजमान हैं। वे काशी निवासी लोगोंका सदा योग-क्षेम वहन करते रहते हैं। वाराणसी में निवास करने पर जो लोलार्क का भजन, पूजन आदि नहीं करते हैं, वे क्षुधा, पिपासा, दरिद्रता, दद्रठ (दाद) तथा फोड़े-फुंसी आदि विविध व्याधियों से ग्रस्त रहते हैं। काशी में गङ्गा-असि-संगम तथा उसके निकटवर्ती लोलार्क आदि तीर्थों का माहात्म्य स्कन्दपुराण आदि में वर्णित है –
सर्वेषां काशितीर्थानां लोलार्क: प्रथमं शिरः।
लोलार्ककरनिष्टप्ता असिधारविखण्डिता:।
काश्यां दक्षिणदिग्भागे न विशेयुर्महामला:॥
(स्कन्दपु०, काशीखण्ड ४६। ५१. ६७)
उत्तरार्क (Uttarark Aditya Temple)
बलिष्ठ दैत्यों द्वारा देवता बार-बार युद्धमें परास्त हो जाते थे। देवताओं ने दैत्यों के आतंक से सदा के लिये छुटकारा पाने के निमित्त भगवान् सूर्य की स्तुति की। स्तुति करने पर सम्मुख उपस्थित हुए प्रसन्नमुख भगवान् सूर्य से देवताओं ने प्रार्थना की – ‘हे प्रभो! बलिष्ठ दैत्य कोई-न-कोई बहाना बनाकर हमारे ऊपर आक्रमण कर देते हैं और हमें परास्त कर हमारे सब अधिकार छीन लेते हैं। निरन्तर की यह महाव्याधि सदा के लिये जैसे समाप्त हो जाय, वैसा समाधायक उत्तर आप हमें देने की कृपा करें।’
भगवान् सूर्य ने विचारकर अपने से उत्पन्न एक शिला उन्हें दी और कहा कि यह तुम्हारा समाधायक उत्तर है। इसे लेकर तुम वाराणसी जाओ और विश्वकर्मा द्वारा इस शिला की शास्त्रोक्त विधि से मेरौ मूर्ति बनवाओ। मूर्ति बनाते समय छेनी से इसे तराशने पर जो प्रस्तर खण्ड निकलेंगे वे तुम्हारे दृढ़ अस्त्र-शस्त्र होंगे। उनसे तुम शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे।
देवताओं ने वाराणसी जाकर विश्वकर्मा द्वारा सुन्दर सूर्य मूर्ति का निर्माण कराया। मूर्ति तराशते समय उससे पत्थर के जो टुकड़े निकले, उनसे देवताओं के तेज और प्रभावी अस्त्र बने। उनसे देवताओं ने दैत्यों पर विजय पायी।
मूर्ति गढ़ते समय जो गड्डा बन गया था, उसका नाम उत्तरमानस (उत्तरार्क कुण्ड) पड़ा। वही कालान्तर में भगवान् शिव से माता पार्वती की यह प्रार्थना करने पर कि –
‘वर्करीकुण्डमित्याख्या त्वर्ककुण्डस्य जायताम्।‘ (स्कन्दपु०,
काशीखण्ड ४७।५६)
अर्थात् ‘अर्ककुण्ड’ (उत्तरार्ककुण्ड) का नाम वर्करीकुण्ड हो जाय, वही कुण्ड ‘वर्करीकुण्ड’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
वर्तमान में उसी का विकृत रूप ‘बकरियाकुंड’ है। यह अलईपुरा के समीप है। उत्तररूप में दी गयी शिला से मूर्ति बननेके कारण उनका उत्तरार्क नाम पड़ा। उत्तरार्क का माहात्म्य बड़ा ही अद्भुत और विलक्षण है। पहले पौषमास के रविवारों को वहाँ बड़ा मेला लगता था, किंतु सम्प्रति वह मूर्ति भी लुप्त है।
उत्तरार्कस्य माहात्म्यं शृणुयाच्छ्रद्धयान्वितः।
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लभते वाञ्छितां सिद्धिमुत्तरार्कप्रसादतः।
(आदित्यपु०, रविवारव्रतकथा ३६-३८)
साम्बादित्य
किसी समय देवर्षि नारद जी भगवान् कृष्ण के दर्शनार्थ द्वारका पुरी पधारे। उन्हें देखकर सब यादव कुमारों ने अभ्युत्थान एवं प्रणामकर उनका सम्मान किया; किंतु साम्ब ने अपने अत्यन्त सौन्दर्य के गर्व से न अभ्युत्थान किया और न प्रणाम ही; प्रत्युत उनकी वेष-भूषा और रूप पर हँस दिया। साम्ब का यह अविनय देवर्षि को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने इसका थोड़ा-सा संकेत भगवान्के समक्ष कर दिया। दूसरी बार जब नारद जी आये, तब भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुर में गोपीमण्डल के मध्य बैठे थे। नारद ने बाहर खेल रहे साम्ब से कहा-‘वत्स! भगवान् कृष्ण को मेरे आगमन की सूचना दे दो।’
साम्ब ने सोचा-एक बार मेरे प्रणाम न करने से ये खित्न हुए थे। यदि आज भी इनका कहना न मानूँ तो और भी अधिक खिन्न होंगे; सम्भवतः शाप दे डालें। उधर पिता जी एकान्त में मातृमण्डल के मध्य स्थित हैं। अनुपयुक्त स्थानपर जाने से वे भी अप्रसन्न हो सकते हैं। क्या करूँ, जाऊँ या न जाऊँ? मुनि के क्रोध से पिता जी का क्रोध कहाँ अच्छा है – यह सोचकर वे अन्तःपुर में चले गये। दूर से ही पिता जी को प्रणामकर नारद के आगमन की सूचना उन्हें दी। साम्ब के पीछे-ही-पीछे नारद जी भी वहाँ चले गये। उन्हें देखकर सबने अपने वस्त्र सँभाले।
नारद जी ने गोपीजनों में कुछ विकृति ताड़कर भगवान्से कहा-‘भगवन्! साम्ब के अतुल सौन्दर्य से ही इनमें कुछ चाञ्चल्य का आविर्भाव हुआ प्रतीत होता है।’ यद्यपि साम्ब सभी गोपीजनों को माता जाम्बवती के तुल्य ही देखते थे, तथापि दुर्भाग्यवश भगवान्ने साम्ब को बुलाकर यह कहते हुए तो शाप दे दिया कि एक तो तुम अनवसरमें मेरे निकट चले आये, दूसरा यह कि ये सब तुम्हारा सौन्दर्य देखकर चञ्चल हुई हैं, इसलिये तुम कुष्ठरोग से आक्रान्त हो जाओ।’
घृणित रोग के भय से साम्ब काँप गये और भगवान्के समक्ष मुक्ति के लिये बहुत अनुनय-विनय करने लगे। तब श्रीकृष्ण भगवान्ने भी पुत्र को निर्दोष जानकर दूर्दैववश प्राप्त रोग की विमुक्ति के लिये उन्हें काशी जाने का आदेश दिया।
तदनुसार साम्ब ने भी काशी जाकर विश्वनाथ जी के पश्चिम की ओर कुण्ड बनाकर उसके तटपर सूर्य मूर्ति की स्थापना की एवं भक्तिभावसहित सूर्याराधना से रोग-विमुक्त हुए।
तभी से सब व्याधियों को हरनेवाले साम्बादित्य सकल सम्पत्तियाँ भी प्रदान करते हैं। इनका मन्दिर सूर्यकुण्ड मुहल्ले में कुण्ड के तटपर है। साम्बादित्य का माहात्म्य भी बड़ा चमत्कारी है-
साम्बादित्यस्तदारभ्य सर्वव्याधिहरो रवि:।
ददाति सर्वभक्तेभ्योऽनामयाः सर्वसम्पदः॥
(स्कन्दपुराण, काशोखण्ड ४८। ४७)
द्रौपदादित्य(Draupad Aditya Temple)
महाबलशाली पाण्डव किसी समय अपने चचेरे भाई दुर्योधन की दुष्टता से बड़ी विपत्ति में पड़ गये। उन्हें राज्य त्यागकर वनों की धूलि फाँकनी पड़ी। अपने पतियों के इस दारुण क्लेश से दुःखी द्रौपदी ने भगवान् सूर्य की मनोयोग से आराधना की।
द्रौपदी की इस आराधना से सूर्य ने उसे कलछुल तथा ढक्कन के साथ एक बटलोई दी और कहा कि जब तक तुम भोजन नहीं करोगी, तब तक जितने भी भोजनार्थी आयँंगे वे सब-के-सब इस बटलोई के अन्न से तृप्त हो जायँगे। यह सरस व्यञ्जनों की निधान है एवं इच्छानुसारी खाद्यों की भण्डार है। तुम्हारे भोजन कर चुकने के बाद यह खाली हो जायगी।
इस प्रकार का वरदान काशी में सूर्य से द्रौपदी को प्राप्त हुआ। दूसरा वरदान द्रौपदी को सूर्य ने यह दिया कि विश्वनाथजी के दक्षिण भाग में तुम्हारे सम्मुख स्थित मेरी प्रतिमा की जो लोग पूजा करेंगे उन्हें क्षुधा-पीड़ा कभी नहीं होगी। द्रौपदादित्यजी विश्वनाथ जी के समीप अक्षय-वट के नीचे स्थित हैं। द्रौपदादित्य के सम्बन्ध में पुराणों में बहुत माहात्म्य वर्णित है –
आदित्यकथामेतां द्रौपद्याराधितस्य वै।
यः श्रोष्यति नरो भक्त्या तस्यैनः क्षयमेष्यति॥
(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड ४१। २४)
मयूखादित्य (Shri Mayukhaditya Surya Temple)
प्राचीन काल में पञ्चगङ्गा के निकट ‘गभस्तीश्वर’ शिवलिङ्ग एवं भक्तमङ्गलकारिणी मङ्गला गौरी की स्थापनाकर उनकी आराधना करते हुए सूर्य ने हजारों वर्ष तक कठोर तपस्या की। सूर्य स्वरूपत: त्रैलोक्य को तप्त करने में समर्थ हैं। तीव्रतम तपस्या से वे और भी अत्यन्त प्रदीप्त हो उठे। त्रैलोक्य को जलाने में समर्थ सूर्य-किरणों से आकाश और पृथ्वी का अन्तराल भभक उठा। वैमानिकों ने तीव्रतम सूर्य-तेज में फतिंगा बनने के भयसे आकाश में गमनागमन त्याग दिया। सूर्य के ऊपर, नीचे, तिरछे-सब ओर किरणें ही दिखायी देती थीं। उनके प्रखरतम तेज से सारा संसार काँप उठा।
सूर्य इस जगत्की आत्मा हैं, ऐसा भगवती श्रुति का उद्घोष है। वे ही यदि इसे जला डालने को प्रस्तुत हो गये तो कौन इसकी रक्षा कर सकता है ? सूर्य जगदात्मा हैं, जगच्चक्षु हैं। रात्रि में मृतप्राय जगत्को वे ही नित्य प्रातः काल में प्रबुद्ध करते हैं। वे जगत्के सकल व्यापारों के संचालक हैं। वे ही यदि सर्वविनाशक बन गये तो किसकी शरण ली जाय ?
इस प्रकार जगत्को व्याकुल देखकर जगत्के परित्राता भगवान् विश्वेश्वर वर देने के लिये सूर्य के निकट गये। सूर्यभगवान् अत्यन्त निश्चल एवं समाधि में इस प्रकार निमग्र थे कि उन्हें अपनी आत्मा की भी सुधि नहीं थी। उनकी ऐसी स्थिति देखकर भगवान् शिव को उनकी तपस्या के प्रति महान् आश्चर्य हुआ। तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने सूर्य को पुकारा, पर वे काष्ठवत् निश्चेष्ट रहे। जब भगवान्ने अपने अमृत-वर्षो हाथों से सूर्य का स्पर्श किया तब उस दिव्य स्पर्श से सूर्य ने अपनी आँखें खोलीं और उन्हें दण्डवत्-प्रणाम कर उनकी स्तुति की।
भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर कहा – ‘सूर्य! उठो, सब भक्तों के क्लेश को दूर करो। तुम मेरे स्वरूप ही हो। तुमने मेरा और गौरी का जो स्तवन किया है, इन दोनों स्तवनों का पाठ करनेवालों को सब प्रकार की सुख-सम्पदा, पुत्र पौत्रादि की वृद्धि, शरीरारोग्य आदि प्राप्त होंगे एवं प्रिय वियोगजनित दुःख कदापि नहीं होंगे।
तुम्हारे तपस्या करते समय तुम्हारे मयूख (किरणें) ही दृष्टिगोचर हुए, शरीर
नहीं, इसलिये तुम्हारा नाम ‘मयूखादित्य’ होगा। तुम्हारा पूजन करने से मनुष्यों को कोई व्याधि नहीं होगी। रविवार के दिन तुम्हारा दर्शन करने से दारिद्र्य सर्वथा मिट जायगा – मयूखादित्यका मन्दिर मङ्गलागौरीमें है।
त्वदर्चनान्नृणां कश्षित्र व्याधि: प्रभविष्यति।
भविष्यति न दारिद्रयं रविवारे त्वदीक्षणात्।
(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड ४१।९४)
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श्री मयूख आदित्य मंदिर (द्वादश आदित्य काशी खंड)
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