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काशी के द्वादश आदित्य – खखोल्कादित्य – अरुणादित्य – केशव आदित्य मंदिर

खखोल्कादित्य (खखोल आदित्य मंदिर) (Khakholka Aditya Temple)

दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ कद्रू और विनता मुनिवर कश्यप की पत्नियाँ थीं। एक समय खेल-खेल में कद्रू ने आग्रहपूर्वक विनता से कहा – ‘बहन! आकाश में तुम्हारी अकुण्ठ गति है, इसलिये पराजित होने पर एक-दूसरे की दासी बनने का शर्त लगाकर यह बतलाओ कि सूर्य के रथ का उच्चै:श्रवा नामक अश्व का रंग सफेद है या चितकबरा ?

शर्त लगाकर तुम्हें जो रुचे उसे कहो ? विनता ने उत्तर दिया – ‘सफेद है।’

कद्रू ने अपने पुत्रों से कहा-‘बच्चो! तुम सब बाल के समान महीन रूप बनाकर उच्चैःश्रवा की पूँछ में लिपट जाओ, जिससे उसके रोएँ तुम्हारी विषैली साँसों से श्याम  रंग के हो जायँ।’ माता शाप न दे – इस भय से बचने के लिये कुछ ने उसकी यह खोटी बात मान ली। शुक्ल उच्चैः त्रवा को कर्बुरित (चितकबरा) कर दिया।

विनता की पीठपर बैठकर कद्रू ने आकाशमार्ग को लाँघकर सूर्य-मण्डल को देखा। तेज किरणों के ताप के कारण वह व्याकुल हो गयी। आकाश मार्ग में आगे उड़ रही विनता से कद्रू ने कहा – ‘बहन विनते! मेरी रक्षा करो। सखि! यह अग्रिपिण्ड गिरता है’ – ‘सखि उल्का पतेदेषा‘ कहने की जगह घबराहट में उसने  ‘खखोल्का निपतेदेषा‘ कह डाला। विनता ने खखोल्क नाम के अर्क की स्तुति की। उससे सूर्यताप कुछ कम होने पर आकाश मार्ग से सूर्य के गुजरने पर उन्होंने उच्चैःश्रवा को कुछ चितकबरा देखा। कद्रू की सूर्य ताप के प्रभाव से नेत्र ज्योति बेकार हो गयी थी।

सत्यवादिनी विनता ने क्रूरा कद्रू से कहा – ‘बहन! तुम्हारी जीत हुई। चन्द्र-किरणों के तुल्य प्रभावाला यह कर्बुरित (चितकबरा) सा मालूम पड़ता है।’ यथार्थ बात कहती हुई विनता कद्रू के घर गयी।

शर्त के अनुसार उसने कद्रू की दासता स्वीकार कर ली। कद्रू दुष्ट स्वभाव की थी। वह विनता को बहुत परेशान करती थी। स्वयं उसपर सवार होकर इधर-उधर सैर करती और अपने बच्चों को भी उसपर सवार कराकर दूर-दूर तक सैर कराती थी।

एक दिन गरुड ने दीर्घ निःश्वास छोड़ती हुई मलिनमुख और अत्यन्त उदास विनता की आँखों में आँसू देखे। गरुड ने कहा-‘माँ ! तुम प्रतिदिन सबेरे-सबेरे कहाँ जाती हो और शाम को थकी-माँदी कहाँ से आती हो?

आँखों में आँसू भरकर क्यों सिसकती हो? माँ! जल्दी कहो। काल को भी भयभीत करनेवाले मुझ-जैसे अपने बच्चे के जीवित रहते तुम क्यों दुःखी हो?’

पुत्र की ऐसी मार्मिक वाणी सुनकर विनता ने कद्रू द्वारा की जाती हुई परेशानी और उसकी दासी होने का अपना सारा वृत्तान्त गरुड को सुना दिया। उक्त वृत्तान्त को सुनकर गरुड ने कहा-‘माँ! तुम उन दुष्टोंके पास जाकर कहो – जो अत्यन्त दुर्लभ हो और जिसमें तुम्हें अत्यन्त अभिरुचि हो वह वस्तु दासीत्व से छुटकारे के लिये माँगो, वह मैं तुम्हें देती हूँ।’ 

विनता ने जाकर सर्पों से उक्त बात कही। सर्प उसे सुनकर बड़े खुश हुए। उन्होंने आपस में विचारकर विनता से कहा – ‘माता के शाप से विमुक्ति के लिये यदि हमें अमृत दोगी तो तुम्हारी इच्छा पूरी होगी, अन्यथा तुम दासी हो ही।’ विनता ने सर्पों की माँग स्वीकार कर ली और कद्रू के पास गयी; उससे विदा लेकर वह शीघ्र गरुड के निकट आयी। गरुड को प्रसन्नचित्त देखकर उससे सारा हाल कहा। गरुड ने कहा -‘माँ! चिन्ता मत करो, अमृत को लाया हुआ ही जानो।’ 

अमृत स्वर्ग में बड़े कड़े पहरे में रखा हुआ था। गरुड ने पहरेदारों को अपने परों की वायु से सूखे पत्तों की तरह अत्यन्त दूर फेंक दिया। फिर शिव जी की स्तुति से प्राप्त हुई अपनी सूझ-बूझ से कठिनाई के साथ अमृत प्राप्त कर लिया। अमृतकलश लेकर वे वहाँ से निकले। शोर मचाते हुए देवताओं ने भगवान् विष्णु से निवेदन किया। भगवान्ने त्वराके साथ गरुड का पीछा किया। दोनों में खूब युद्ध हुआ। गरुड की बलवत्ता से भगवान् बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा -‘वीर! सर्पों को अमृत दिखाकर माता को दासता से छुड़ा लो। सपों के साथ ऐसा कौशल करो जिससे वे शौघ्र सुधा-पान न कर सकें एवं अमृत देवताओं को मिल जाय।’

‘तथास्तु’ कहकर गरुड वहाँ से निकले। उन्होंने माँ को दासता से मुक्तकर सपों के सामने अमृत महान् कमण्डलु में रख दिया। वे जब अमृत-पान के लिये प्रस्तुत हुए तब गरुड ने कहा-‘सर्पवृन्द! इस पवित्र सुधा का पान पवित्र होकर करना चाहिये।

यदि स्नान किये बिना इसका स्पर्श करोगे तो देवताओं द्वारा सुरक्षित यह सुधा गायब हो जायगी।’ वे सब सर्प अपनी माता के साथ स्नान करने के लिये गये और इधर भगवान् विष्णु ने अमृत-कलश देवताओं को दे दिया।

दासता से मुक्त हुई विनता ने गरुड से कहा-‘वत्स! मैं दासतारूपी पाप की निवृत्ति के लिये पापराशि-विनाशिनी काशी जाऊँगी; इसलिये कि प्राणियों में तभीतक नाना जन्मों के अर्जित पाप बलिष्ठ रहते हैं,

जबतक काशी का स्मरण और दर्शन नहीं किया जाता।’ माँ का कथन सुनकर गरुड ने भी नमस्कार पूर्वक माँ से कहा-‘माँ! मैं भी शिवार्चित काशी के दर्शनार्थ तुम्हारे साथ चलूँगा।’

दोनों क्षणभर में मोक्षदायिनी काशी पहुँचे। दोनों ने कठोर तपस्या की। विनता ने ‘खखोल्क’ नामक आदित्य की स्थापना की और गरुड ने शाम्भवलिङ्ग की स्थापना की। 

 उन दोनों की उग्र तथा श्रद्धाभक्तियुक्त तपस्या से शंकर और भास्कर दोनों प्रसन्न हो गये। 

शिव जी की ही अन्य मूर्ति-रूप खखोल्क नामक भास्कर की तपस्या करती हुई विनता को देखकर शिव ने ज्ञानपूर्ण पापसंहारी वर प्रदान किया। काशीवासीजनों के अनेक जन्मों के पापों का क्षय करनेवाले ‘विनतादित्य’, ‘खखोल्क’ नाम से काशी में विराजमान हैं।

वे काशीवासीजनों के विघ्रान्धकार को दूर करनेवाले हैं। उनके दर्शनमात्र से मनुष्य सकल पापों से मुक्त हो जाता है।

खखोल्कादित्य पाटन दरवाजा मुहल्ले में कामेश्वर मन्दिर के द्वार पर है। खखोल्कादित्यके दर्शन करने से मनुष्यों के मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं एवं रोगी नीरोग हो जाता है –

काश्यां पैशिङ्गिले तीर्थे खखोल्कस्य विलोकनात्।
नरश्चिन्तितमाप्नोति           नीरोगो जायते क्षणात्॥


अरुणादित्य (अरुण आदित्य मंदिर)(Arun Aditya Temple)

विनता अपनी सपत्नी (सौत) को गोद में बच्चे खेलाते देख स्वयं भी बच्चे को गोद में खेलाने की अभिलाषा न त्याग सकी; अतः जो अंडा अभी सेवा जा रहा था – जिसकी अवधि पूरी नहीं हुई थी, उसे उसने फोड़ दिया। विकलाङ्ग शिशु ऊरु (जंघा) रहित होने से ‘अनूरु’ एवं अवधि से पूर्व ही अंडा फोड़ देने से माँ के प्रति क्रोधवश अरुण (लाल) होने से ‘अरुण’ कहलाया। अरुण ने काशी में तपस्या करते हुए सूर्य की आराधना की। सूर्य ने उसपर प्रसन्न हो उसे अनेक वर दिये एवं उसके नाम से स्वयं सूर्य ‘अरुणादित्य’ हुए।

सूर्य ने कहा- ‘हे अनूरो! तुम त्रैलोक्य के हितार्थ मेरे रथपर सदा स्थित रहो एवं मुझसे पहले अन्धकार का विनाश करो। जो मनुष्य वाराणसी में विश्वेश्वर के उत्तर तुम्हारे द्वारा स्थापित अरुणादित्य नामक मेरी मूर्ति का अर्चन-पूजन करेंगे, उन्हें न तो दुःख होगा, न दरिद्रता होगी और न पातक लगेगा। वे न विविध प्रकार की व्याधियों से आक्रान्त होंगे और न नाना प्रकार के उपद्रवों से पीडित होंगे।

अरुणादित्य पाटन दरवाजा मुहल्ले में त्रिलोचन-मन्दिर में स्थित हैं। अरुणादित्य के सेवकों को शोकाग्रिजनित दाह भी कदापि नहीं होगा’ –

येऽर्चयिष्यन्ति    सततमरुणादित्यसंज्ञकम्।
मामत्र तेषां नो दुःखं न दारिद्र्य न पातकम्।।


 

वृद्धादित्य (वृद्ध आदित्य मंदिर) (Vriddha Aditya Mandir)

काशी में प्राचीन काल में वृद्धहारीत नाम के एक महातपस्वी रहते थे। उन्होंने विशालाक्षी देवी के दक्षिण ओर मीरघाट पर महातप की । समृद्धि के लिये सूर्यनारायण की एक सुन्दर मूर्ति स्थापित की और उनकी आराधना की। उन्होंने अपनी अतुल भक्तिपूर्ण आराधना से प्रसन्न हुए सूर्य से वर माँगा – ‘भगवन्! वृद्ध पुरुष में तप करने की शक्ति नहीं रहती। यदि मुझे आपके अनुग्रह से फिर तारुण्य प्राप्त हो जाय तो मैं उत्तम तप कर सकूँगा।’ मनुष्य की सर्वविध अभ्युन्रति के लिये तप ही परम साधन है। वृद्धहारीत के तप से प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य ने वृद्ध तपस्वी की वृद्धावस्था तत्क्षण मिटाकर उन्हें यौवन प्रदान कर दिया।

यौवन प्राप्तकर हारीत ने महान् उग्र तप किया। वृद्धादित्य के भक्तिभावपूर्ण अर्चन-पूजन से वार्धक्य, दरिद्रता एवं विविध रोगों से मुक्ति पाकर बहुतों ने सिद्धि पायी है –

वृद्धादित्यं समाराध्य वाराणस्यां घटोद्भव।
जरादुर्गतिरोगघ्नं बहवः      सिद्धिमागता:॥

 


 

केशवादित्य (केशव आदित्य मंदिर)(Adikeshav & Keshav Aditya Temple)

किसी समय आकाश में संचरण कर रहे सूर्यनारायण ने भगवान्  आदिकेशव को बड़े श्रद्धाभाव से शिवलिङ्ग का पूजन करते देखा। वे महान् आश्चर्य से चकित हो आकाश से उतरकर भगवान् केशव के निकट अवसर की प्रतीक्षा करते हुए चुपचाप बैठ गये। भगवान् केशवद्वारा की जा रही शिवपूजा समाप्त होने पर सूर्य ने उन्हें सभक्ति प्रणाम किया।

भगवान्ने भी उनका उचित स्वागत-सत्कार कर पास में बैठा लिया। अवसर पाकर सूर्य ने पूछा-‘भगवन्! आपसे ही यह जगत् उत्पन्न होता है और आपमें ही लीन हो जाता है। आपका भी कोई पूज्य है – यह जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।’

भगवान् केशव ने कहा -‘भास्कर! सब कारणों के भी कारण देवाधिदेव महादेव उमापति ही एकमात्र पूज्य हैं। जो त्रिलोचन के सिवा अन्य की पूजा करता है, वह आँखवाला होने पर भी अन्धा है। जिन लोगों ने एक बार भी पार्वती पति के लिङ्ग की पूजा की, उन्हें विविध दुःखों से भरे संसार में भी दुःख नहीं होगा।’

न लिङ्गाराधनात् पुण्यं त्रिषु  लोकेषु चापरम्।
सर्वतीर्थाभिषेक: स्वालिङ्गस्त्रानाम्बुसेवनात्।।

अर्थात् ‘शिवलिङ्ग की आराधना से बढ़कर तीनों लोकों में दूसरा पुण्य नहीं है एवं शिवलिङ्ग के स्नान के जल के सेवन से सब तीर्थों में स्नान का पुण्य प्राप्त हो जाता है।’ भगवान् विष्णु के मुख से शिव जी का ऐसा अद्भुत माहात्म्य सुनकर कि हे सूर्य! तुम भी विपुल तेज को बढ़ानेवाली परम लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये शिवलिङ्ग की पूजा करो- भगवान् सूर्य स्फटिक का लिङ्ग बनाकर उसकी पूजा करने लगे। तभी से सूर्य आदिकेशव को अपना गुरु मानकर आदिकेशव के उत्तर में आज भी स्थित हैं। काशी में भक्तजनों के अज्ञानान्धकार का विनाश करनेवाले वे ‘केशवादित्य’ पूजा-अर्चा करनेवालों को सदा मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं

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केशवादित्यमाराध्य वाराणस्यां नरोत्तमः।
परमं ज्ञानमाप्नोति येन निर्वाणभाग्भवेत्।।

मतिमान् श्रेष्ठ पुरुष वाराणसी में ‘केशवादित्य’ की आराधनापूर्वक परम ज्ञान प्राप्त करते हैं, जिससे उन्हें निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त होता है तथा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक इनके माहात्म्य के श्रवण से मनुष्य को पाप स्पर्श नहीं करते और शिवभक्ति प्राप्त होती है।



विमलादित्य (विमला आदित्य)(Vimala Aditya)

विमल नामका एक क्षत्रिय था। वह बड़ा सत्कार्यकारी होने पर भी प्राक्तन कर्मवश कुष्ठरोग से आक्रान्त हो गया। वह घर-द्वार, पुत्र-कलत्र, धन-दौलत सबका परित्याग कर काशी आया। उसने हरिकेशवन (जङ्गमवाड़ी)-में हरिकेशेश्वर के निकट सूर्यमूर्ति स्थापितकर परम भक्ति-श्रद्धापूर्वक सूर्य की आराधना की।

वह कनैर, अड़हुल, सुन्दर किंशुक, लाल कमल, सुगन्धपूर्ण गुलाब और चम्पा के पुष्पों, चित्र-विचित्र मालाओं, कुंकुम, अगुरु और कर्पूर मिश्रित लाल चन्दन, सुगन्धित धूपों, कपूर और बत्तियों की आरार्ति, विविध प्रकार के सुमिष्ट नैवेद्यों, भाँति-भाँति के फलों, अर्ध्यप्रदान एवं सूर्य-स्तोत्रों द्वारा सूर्य की पूजा करता था। इस प्रकार निरन्तर आराधना करने से उसपर भगवान् सूर्य प्रसन्न हुए। उन्होंने वर माँगने को कहा एवं यह भी कहा कि तुम्हारा कुष्ठरोग तो मिटेगा ही, उसके अतिरिक्त और भी वर माँगो।

दण्डवत्-प्रणाम करते हुए विमल ने कहा-‘भगवन्! यदि आप प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो जो लोग आपके भक्तिनिष्ठ हों, उनके कुल में कुष्ठ तथा अन्यान्य रोग भी न हों; उन्हें दरिद्रता भी न सतावे; आपके भक्तों को किसी प्रकार का दुःख न हो, यही वर दें।’ विमल के उक्त वरों को सुनते हुए सूर्य ने ‘तथास्तु’ कहकर आगे कहा -‘विमल! तुमने काशी में जो यह मेरी मूर्ति स्थापित की है, इसकी संनिधि का मैं कभी त्याग नहीं करूँगा एवं यह मूर्ति तुम्हारे नाम से प्रख्यात होगी। सब व्याधियों को दूर करनेवाली तथा सकल पापों का विध्वंस करनेवाली ‘विमलादित्य’ नामक यह प्रतिमा भक्तों को सदा वर प्रदान करेगी।’

इत्थं स विमलादित्यो वाराणस्यां शुभप्रदः।
तस्य दर्शनमात्रेण       कुष्ठरोगः प्रणश्यति॥

इस प्रकार शुभप्रद (मङ्गलकारी) विमलादित्य काशी में विराजमान हैं। उनके दर्शनमात्र से कुष्ठरोग मिट जाता है।


गङ्गादित्य (प्राचीन गंगा आदित्य मंदिर)

गङ्गादित्य वाराणसी में ललिताघाट पर विराजते हैं। केवल उनके दर्शनों से मनुष्य शुद्ध हो जाता है। भगीरथ के रथ का अनुसरण करती हुई भागीरथी जब यहाँ (काशी में) पधारीं, तो रवि ने वहीं पर स्थित होकर गङ्गा की स्तुति की।

आज भी वह गङ्गा को सम्मुखकर रात-दिन उनकी स्तुति करते हैं। ‘गङ्गादित्य’ की आराधना करनेवाले नरश्रेष्ठों की न दुर्गति होती है और न वे रोगाक्रान्त ही होते हैं। इनका दर्शन पुण्यप्रद है।


यमादित्य

यमेश्वर से पश्चिम और आत्मवीरेश्वर से पूर्व संकटाघाट पर स्थित यमादित्य के दर्शन करने से मनुष्यों को यमलोक नहीं देखना पड़ता। भौमवारी चतुर्दशी को यमतीर्थ में स्नानकर यमेश्वर और यमादित्य के दर्शनकर मानव सब पापों से छुटकारा पा जाते हैं। प्राचीन काल में यमराज ने यमतीर्थ में कठोर तपस्या करके भक्तों को सिद्धि प्रदान करनेवाले यमेश्वर और यमादित्य की स्थापना की थी।

यमराज द्वारा स्थापित यमेश्वर और यमादित्य को प्रणाम करनेवाले एवं यमतीर्थ में स्नान करनेवाले पुरुषों को यामी (नारकीय) यातनाओं का भोगना तो दूर, यमलोक को देखना तक नहीं पड़ता। इसके अतिरिक्त यमतीर्थ में श्राद्ध करके, यमेश्वर का पूजनकर एवं यमादित्य को प्रणामकर मनुष्य पितृऋण से भी उऋण हो जाता है –

श्राद्धं कृत्वा यमे तीर्थे पूजयित्वा यमेश्वरम्।
यमादित्यं नमस्कृत्य पितृणामनृणो भवेत्।


ये बारह आदित्य पाप-राशि-विनाशी हैं। इनके दर्शन-पूजन आदि से मनुष्यों के यामी यातनाएँ नहीं होती हैं। इनके अतिरिक्त काशी में गुह्यकार्क आदि और भी अनेक आदित्य हैं। सबकी पूजा-अर्चा लाभप्रद है। इनकी पूजा-अर्चा प्रत्येक नर-नारी को करनी चाहिये। बारह आदित्यों के आविर्भाव की संसृचक कथा को सुनने अथवा दूसरों को सुनानेवाले मनुष्यों के पास दुर्गात कदापि नहीं आ सकती।

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