महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान आदिनाथ की परंपरा में चौबीस वें तीर्थंकर हुए थे. इनका जीवन काल पांच सौ ग्यारह से पांच सौ सत्ताईस ईस्वी ईसा पूर्व तक माना जाता है ।
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तीर्थाधिराज
श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, व्याम-वर्ण, लगभग ६० से० मी०।
तीर्थ स्थल
क्षत्रियकुण्ड की तलेटी कुण्डघाट से लगभग ५ कि० मी० दूर बनयुक्त पहाड़ी पर।
प्राचीनता
इस तीर्थ का इतिहास चरम तीर्थकर भगवान श्री महावीर के पूर्व से प्रारम्भ होता है। भगवान श्री महावीर के पिता ज्ञात वंशीय राजा सिद्धार्थ थे। यह क्षत्रियकुण्ड उनकी राजधानी थी। राजा सिद्धार्थ की शादी वैशाली गणतन्त्र के गणाधीस राजा चेटक की बहिन त्रिशला से हुई थी। (दिगम्बर मान्यतानुसार त्रिशला को राजा चेटक की पुत्री बताया जाता है) राजा चेटक श्री पावर्वनाथ भगवान के अनुयायी थे। राजा चेटक की यह प्रतिज्ञा थी कि उनकी पुत्रियों का विवाह भी जैनी राजाओं से ही किया जायेगा। कितनी धर्म श्रद्धा थी उनमें।
राजा सिद्धार्थ अति ही शांत, धर्म प्रेमी व जन-प्रिय राजा थे। क्षत्रियकुण्ड के निकट ही ब्राह्मणकुण्ड नाम का शहर था। वहाँ ऋषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। उनकी धर्म पत्नी का नाम देवानन्दा था। आषाड़ शुक्ला छठ के दिन उतराषाढ़ा नक्षत्र में माता देवानन्दा ने महा स्वप्न देखे। उसी क्षण प्रभु का जीव अपने पूर्व के २६ भव पूर्ण करके माता की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ। स्वप्नों का फल समझकर माता-पिता को अत्यन्त हर्ष हुआ। गर्भकाल में उनके घर में धन-धान्य की वृद्धि हुई।
परन्तु जैन मतानुसार तीर्थकर पद प्राप्त करने वाली महान आत्माओं के लिये क्षत्रियकुल में जन्म लेना आवश्यक समझा जाता है। परन्तु ऐसी मान्यता है की मरीचि के भव में किये कुलाभिमान के कारण उन्हें देवानन्दा की कुकि में जाना पड़ा,। श्री सौधर्मेन्द्र देव ने देवानन्दा माता के गर्भ को क्षत्रिय कुल के ज्ञात वंशीय राजा सिद्धार्थ की रानी तिशला की कुक्षि में स्यानान्तर करने का नैगमेषी देव को आदेश दिया।
इन्द्र के आज्ञानुसार देव ने सविनय भक्ति भाव पूर्वक आश्विन कृष्ण तेरस के शुभ दिन उतराषाढा नक्षत्र में गर्भ का स्थानांतर किया, उसी क्षण विदेही पुत्री माता श्री जिशला ने तीर्थकर जन्म सूचक महा-स्वप्न देखे। इस प्रकार भगवान का जीव माता त्रिशला की कुक्षि में प्रवेश हुआ। (दि० मान्यतानुसार गर्भ का स्थानान्तर नहीं हुआ माना जाता है) गर्भ काल के दिन पूर्ण होने पर माता त्रिशला ने वि० सं० के ५४३ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को अर्द्ध रात्री के समय सिंह लक्षण बाले पुत्र को जन्म दिया। इन्द्रादि देवों ने प्रभु को मेरू पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव अति ही आनन्द व उल्लास पूर्वक मनाया।
राज दरवार में भी बधाइयाँ बटने लगी। कैदियों को रिहा किया गया। जन साधारण में खुशी की लहर लहराने लगी। प्रभु का माता त्रिशला की गर्भ में प्रबिष्ट होने के पश्चात् समस्त क्षत्रियकुण्ड राज्य में धन-धान्यादि की वृद्धि होकर चारों तरफ राज्य में सुख शान्ति बढ़ी जिस कारण जन्म से बारहवें दिन प्रभु का नाम वर्द्धमान रखा। (दि० मान्यतानुसार प्रभु का जन्म वैशाली के अन्तर्गत वासुकुण्ड में या नालन्दा के निकट कुण्डलपुर में हुआ बताया जाता है।
श्री वर्द्धमान वचपन से ही वीर व निडर थे। एक बार प्रभु अपने मित्रों के साथ आमलकी फीड़ा करते थे। तब एक देव सर्प का रूप धारण कर झाड़ से लिपट गया। प्रभु ने निडरता से सर्प को पकड़कर एक ही झटके से अलग कर दिया। वही देव बालक बनकर इनके खेल कीड़ा में शामिल हुआ।
हारने पर उसे घोड़ा बनना पड़ा। उसपर ज्यों ही प्रभु असवार हुए कि
विराट व भयानक रूप करके वायुवेग से दौड़ने लगा। प्रभु का मुष्टी प्रहार होते ही वह शान्त हो गया। देव ने विनयपूर्वक वन्दन करते हुए प्रभु को वीर नाम से संबोधित किया इस कारण प्रभु महावीर भी कहलाए।
प्रभु निडर व वीर तो थे ही विद्या में भी निपुण व ज्ञानवान थे। जिसका वर्णन देव द्वारा पाठशाला में उनके उपाध्याय के सन्मुख पूछे गये प्रश्नों आदि में मिलता है। प्रभु की इच्छा शादी करने की न होने पर भी उनके माता-पिता की प्रसभ्नता के लिये राजा समरवीर की पुत्री श्री यशोदा देवी के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
(दि० मान्यता में शादी नहीं हुई मानी जाती है) श्री यशोदा देवी की कुक्षि से प्रियदर्शना नाम की कन्या का जन्म हुआ, जिसका विवाह श्री जमाली नामक राजकुमार के साथ हुआ। जमाली प्रभु की बहिन सुदर्शना के पुत्र थे। प्रभु २८ वर्ष के हुए तब उनके माता-पिता का देहान्त हुआ एवं प्रभु के भ्राता श्री नन्दीवर्धन ने राज्य भार संभाला। प्रभु का दिल संसारिक कार्यों में नहीं लग रहा था जिससे वे हर वक्त व्याकुल रहते थे। भ्राता नन्दीवर्धन से बार बार आग्रह करने पर उन्होंने दीक्षा के लिये अनुमति प्रदान की।
प्रभु ने राज्य सुख त्यागकर प्रसन्नचित्त वर्षीदान देते हुए “ज्ञात खण्ड” उपवन में जाकर वस्त्राभूषण त्याग करके पंच-मुष्टि लोचकर वि० सं० के ५१३ वर्ष पूर्व
मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के शुभ दिन अति कठोर दीक्षा अंगीकार की। उसी बक्त प्रभु को मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। उस समय प्रभु की उम्र ३० वर्ष की थी। जब प्रभु ने वस्त्राभूषणों का त्याग किया तब इन्द्र ने देबदृश्य अर्पण किया। इस प्रकार प्रभु के तीन कल्याणक इस पावन भूमि में हुए। दीक्षा के पश्चात् प्रभु को अनेकों उपसर्ग सहने पड़े। प्रभु ने निडरता, धर्मवीरता, सहनशीलता, मानवता, निर्भयता व दयालुता दिलाकर विश्व में मानव धर्म के लिये एक नई ताजगी प्रदान की।
कल्प-सूत्र में भी प्रभुवीर की जन्म-भूमि क्षत्रियकुण्ड का वर्णन विस्तार पूर्वक किया गया है। सं० १३५२ में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वाचक राजशेखरजी, सुबुद्धिराजजी, हेमतिलकगणी, पुण्य कीर्तिगणी आदि श्री बड़गाँव (नालन्दा) में बिचरे थे तब वहाँ के ठाकुर रत्नपाल आदि श्रावकों ने सपरिवार क्षत्रियकुण्ड ग्राम आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की थी जिसका वर्णन प्रधानाचार्य गुर्वावली में आता है।
पन्द्रहवी शताब्दी में आचार्य श्री लोकहिताचार्यसूरिजी क्षत्रियकुण्ड आदि की यात्रार्थ पधारने का उल्लेख श्री जिनोदयसूरिजी प्रेषित विज्ञप्ति महालेख में मिलता है। सं० १४६७ में श्री जिनवर्धन सूरिजी द्वारा रचित पूर्वदेश चैत्य परिपाटी में क्षत्रियकुण्ड का वर्णन है। सोलहवीं सदी में विद्वान श्री जयसागरोपाध्यायजी द्वारा वहाँ की यात्रा करने का वर्णन दशवेकालिकवृति में मिलता है। मुनि जिनप्रभसूरिजी ने भी अपनी तीर्थ माला में क्षत्रियकुण्ड का वर्णन किया है। कवि हंससोमविजयजी द्वारा सं० १५६५ में रचित तीर्थमाला में भी इसका वर्णन है – अठारहवीं सदी में श्री शीलविजयजी ने इस तीर्य की बड़े ही सुन्दर ढंग से व्याख्या की है।
सं० १७५० में सौभाग्यविजयजी ने भी अपनी तीर्थ माला में यहाँ का वर्णन किया है। इस प्रकार यहाँ का वर्णन जगह-जगह पाया जाता है। वर्तमान में पहाड़ी पर यही एक मन्दिर है जिसे जन्मस्थान कहते हैं। निकट ही अनेकों प्राचीन सण्डहर पड़े हैं जो कुमारग्राम, माहणकुण्डग्राम, ब्राह्मणकुण्डग्राम, मोराक आदि प्राचीन स्थलोंकी याद दिलाते हैं। तलहटी में दो मन्दिर हैं, जिन्हें व्यवन व दीक्षा कल्याणक स्थलों के नाम से संबोधित किया जाता है।
विशिष्टता
इस पवित्र भूमि में वर्तमान चौबीसी के चरम तीर्थकर श्री महावीर भगवान के च्यवन जन्म व दीक्षा आदि तीन कल्याणक होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है। प्रभु ने अपने जीवनकाल के तीस वर्ष इस पवित्र भूमि में व्यतीत किये। अतः इस स्थान की महत्वता का किन शब्दों में वर्णन किया जाय। यहाँ के जन्म स्थान का मन्दिर ही नहीं अपितु इस पवित्र भूमि का कण-कण पवित्र व बन्दनीय है। आज भी यहाँ का शान्त व शीतल वातावरण मानव के हृदय में भक्ति का स्रोत बहाता है।
यहाँ पहुँचते ही मनुष्य सारी सांसारिक व व्यवहारिक वातावरण भूलकर प्रभु भक्ति में लीन हो जाता है। इसी पवित्र भूमि में प्रभु की, आत्म कल्याण व विश्व कल्याण की भावता प्रबलता से उत्तेजित हुई थी। कहा जाता है उस समय जगह-जगह यवनों आदि का जोर बढ़ता आ रहा था। धर्म के नाम पर निर्दोषी जीवों की बलि दी जाती थी। नारी को दासी के स्वरुप माना जाता था। दास-दासियों की प्रथा का जोर बढ़ता आ रहा था, निर्बल नर-नारियों को दास-
दासियों के तौर पर आम बाजार में बेचा जा रहा था। जिनके पास ज्यादा दास-दासियाँ रहती थीं उन्हे पुण्यशाली समझा जाता था। प्रभु ने आत्म कल्याण एवॅं विश्व कल्याण के लिये उत्तेजित हुई भावना को साकार रूप देने का निश्चय करके राजसुख को त्यागा व दीक्षा लेकर आत्मध्यान में लीन हो गये। अनेकों प्रकार के अति कठिन उपसर्ग सहन करके प्रभु ने केवल ज्ञान प्राप्त किया। प्रभु ने अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, व अपरिग्रह को महान धर्म ही नहीं परन्तु मानव धर्म बताया जिनके अनुकरण मात्र से ही आत्मा को शांति मिल सकती है। आज के युग में भी मानव समाज इन तत्वों के अनुसरण की आवश्यकता महसूस कर रहा है।
प्रभु ने नारी को भी धर्म प्रचार करने का अधिकार दिया।प्रभु ने जाति भेद का तिरस्कार किया व विश्व के हर जीव-जन्तु के प्रति करुणा का उपदेश दिया। यह सब श्रेय इसी पवित्र भूमि को है जहाँ हमारे देवाधिदेव प्रभु का जन्म हुआ व उनकी असीम कृपा के कारण आज जैन धर्म विश्व का एक महान धर्म बना हुआ है व उसके सिद्धान्तों के अनुकरण की विश्व आज भी आवश्यकता महसूस कर रहा है।भगवान महावीर की वाणी आज भी हर मानव, पशु, पक्षी आदि के लिये कल्याणकारी हे व हमेशा के लिये कल्याणकारी रहेगी।
अन्य मन्दिर
वर्तमान में क्षत्रियकुण्ड पहाड़ पर यही एक मन्दिर है। यहाँ की तलहटी कुण्डघाट में दो छोटे मन्दिर हैं जहाँ वीर प्रभु की प्रतिमाएँ विराजित हैं। इन स्थानों को च्यवन व दिक्षा कल्याणक स्थानों के नाम से संबोधित किया जाता है। लछवाड़ में एक मन्दिर हैं। ये सारे श्वेताम्बर मन्दिर हैं।
कला और सौन्दर्य
यहाँ प्रभु वीर की प्राचीन प्रसन्नचित्त प्रतिमा अति ही कलात्मक व दर्शनीय है। प्रतिमा के दर्शन मात्र से मानव की आत्मा प्रफुल्लित हो उठती है। तलहटी से ५ कि० मी० पहाड़ पर का प्राकृतिक दृश्य अति ही मनोरंजक हैं।
मार्ग दर्शन
नजदीक के रेलवे स्टेशन लखीसराय, जमुई व कियुल ये तीनों लछवाड़ से लगभग ३०-३० कि० मी० हैं! इन स्थानों से बस व टैक्सी की सुविधा है। सिकन्दरा से लछवाड़ लगभग १० कि० मी० है, यहाँ पर भी बस, टैक्सी व ताँगों की सुविधा है। लछवाड़ से तलहटी (कुण्डघाट) ५ कि० मी० व तलहटी से क्षत्रियकुण्ड ५ कि० मी० है। लछवाड़ में धर्मशाला है, जहाँ तक पक्की सड़क है। आगे तलहटी तक कच्ची सड़क है, लेकिन कार व बस जा सकती है। तलहटी से ५ कि० मी० पहाड़ की चढ़ाई पैदल पार करनी पड़ती है। लछवाड़ धर्मशाला से बस स्टैण्ड आधा कि० मी० है, जहाँ सवारी का कोई साधन नहीं है।
सुविधाएँ
ठहरने के लिये लछवाड़ में धर्मशाला है। जहाँ बिजली, पानी, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा है। पहाड़ पर पानी की पूर्ण सुविधा है।
श्री जैन श्वेताम्बर सोसाइटी,
डाकघर – लछवाड़,
जिला -मुंगेर
प्रान्त-बिहार : तारघर-सिकन्दरा
टेलीफोन – पी० सी० ओ० सिकन्दरा।