माता शबरी का भक्ति साहित्य में अद्वितीय स्थान है। भक्त नाभादासरचित भक्तमाल में एक प्रसंग आता है, जिसमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपनी एक भक्त माता शबरी के हाथों बेर खाते हैं। रामायण के अरण्यकाण्ड में उल्लेख मिलता है कि माता शबरी के देह त्यागने के बाद भगवान् श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण जी ने उनका अन्तिम संस्कार किया था।
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माता शबरी
पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार माता शबरी एक भीलनी अर्थात् भील जाति की कन्या थीं। उनका मूल नाम श्रमणा था। उनके पिता अज भीलों के मुखिया थे। माता जी का नाम इन्दुमति था। ये भील जाति से सम्बन्धित शबर समाज के थे।
विवाह
कहा जाता है कि श्रमणा बचपन में प्रायः वैराग्य की बातें किया करती थीं। उनके माता पिता ने जब यह बात एक पण्डित जी को बतायी, तो उन्होंने सलाह दी कि इसका विवाह करा दीजिये। शबरी का विवाह एक भील कुमार से तय कर दिया गया। परम्परानुसार विवाह से पहले सैकड़ों पशु वध के लिये लाये गये। इसे देखकर शबरी बहुत दुखी हो गयी।
परम्परा के मुताबिक तत्कालीन भील समाज में किसी भी शुभ अवसर पर पशुओं की बलि दी जाती थी, लेकिन शबरी को पशु पक्षियों से बहुत स्नेह था। इसलिये पशुओं को बलि से बचाने के लिये शबरी ने विवाह नहीं किया और विवाह से एक दिन पहले ही घर से भागकर दण्डकारण्य चली गयी।
माता शबरी और ऋषि मतंग का मिलन
दण्डकारण्य में ऋषि मतंग तपस्या कर रहे थे। शबरी उनकी सेवा करना चाहती थी। तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति प्रथा के अनुसार भील जाति की होने के कारण उसे अंदेशा था कि शायद उसे सेवा का अवसर न मिले।
फिर भी वह सुबह-सुबह ऋषि मतंग के सोकर उठने से पहले ही उनके आश्रम से नदी के तट तक का रास्ता झाड़ से बुहारकर साफ कर देती थी। वह यह काम ऐसे करती थी कि किसी को पता ही नहीं चलता था।
एक दिन ऋषि मतंग को पता चल गया कि शबरी वर्षों से निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा कर रही है, तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे अपने आश्रम में शरण दे दी।
शबरी के काम से खुश होकर मतंग ऋषि ने उन्हें अपनी बेटी मान लिया था। समयके साथ मतंग ऋषि का शरीर बूढ़ा हो गया था। एक दिन मतंग ऋषि ने शबरी को अपने पास बुलाया और कहा, ‘पुत्रि! मैं अपना देहत्याग कर रहा हूँ। बहुत साल हो गये, इस शरीर में रहते-रहते।’
तब शबरी ने कहा, ‘गुरुदेव! आपके बिना मैं अकेले जीकर क्या करूँगी? इसीलिये मैं भी अपना देह त्याग दूँगी।’ तब मतंग ऋषि ने कहा, ‘एक दिन तुम्हारे पास भगवान् श्रीराम स्वयं चलकर आयेंगे। वही तुम्हें मोक्ष देंगे। तब तक तुम यहीं उनकी प्रतीक्षा करो।’ ऐसा कहकर मतंग ऋषि ने अपना देह त्याग दिया।
उसी दिन से शबरी प्रतिदिन भगवान् श्रीराम की राह देखती थी। नित्य अपनी कुटिया के बाहर बैठकर श्रीराम के आने की प्रतीक्षा करती थी। ऋषि मतंग
त्रिकालदर्शी थे। इसलिये वे भविष्य की बात पहले ही जान चुके थे। भक्त माता शबरी ने अपने गुरुदेव ऋषि मतंग की बात गाँठ बाँधकर रख ली। प्रतिदिन सुबह
उठकर अपनी झोपड़ी की अच्छे से लिपाई-पोताईकर रास्ते में फूल बिछाकर दरवाजे के बाहर श्रीराम की प्रतीक्षा करती थीं। यह क्रम एक-दो या कुछ सप्ताह-महीने नहीं, बल्कि वर्षों तक चला। माता शबरी कभी निराश नहीं हुईं। उन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान् श्रीराम की प्रतीक्षामें बिता दिया।
उन्हें अपने गुरुदेव की बात पर पूरा विश्वास था कि श्रीरामचन्द्रजी उसकी झोपड़ी में जरूर आयेंगे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब ऋषि मतंग ने परलोकगमन किया, तब शबरी महज दस वर्ष की थी। उस समय राजा दशरथ का कौसल्या जी से विवाह तक नहीं हुआ था।
कालान्तर में अपने पिता के आदेश का पालन करते हुए भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब चौदह वर्ष के वनवास पर निकले, तब वे अपनी अनन्य भक्त माता शबरी की झोपड़ी में पधारे। वर्षों बाद जब शबरी को अपने आराध्य प्रभु श्रीरामचन्द्र जी के दर्शन हुए तो वे इतनी भावविभोर हो गयीं कि वे मीठे बेर खिलाने की इच्छा से स्वयं चख चखकर श्रीरामचन्द्रजी को खानेके लिये देने लगीं।
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी शबरी की भक्ति के वशीभूत उनके दिये बेर भी खुशी खुशी खाने लगे। उन्होंने कुछ बेर अपने अनुज लक्ष्मण को भी दिये। लक्ष्मण जी ने भैया का मान रखते हुए बेर ले तो लिये, पर खाये नहीं।
माना जाता है कि इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कालान्तर में वनवास के दौरान राम-रावण-युद्ध में जब शक्ति बाण का उपयोग हुआ, तो लक्ष्मण जी मूर्च्छित हो गये थे। उस समय बेर से बनी हुई संजीवनी बूटी से उनका जीवन
बचाया गया था।
जब भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने शबरी से जाने की अनुमति माँगी, तब शबरी ने कहा कि जिस राम की प्रतीक्षा में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया, अब उन्हें कैसे जाने की अनुमति दे दे। उन्होंने श्रीरामचन्द्र जी का नाम-स्मरण करते हुए देह त्याग दिया। श्रीरामचन्द्र जी ने ही उनके अन्तिम संस्कार किये थे।
शिवरीनारायण कहाँ पर स्थित है?
रामायणकाल में मतंग ऋषि के जिस आश्रम में प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने भक्त माता शबरी के बेर खाये थे, वह वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के जांजगीर-चाम्पा जिले के शिवरीनारायण नामक स्थानपर स्थित है। महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम पर बसा है- शिवरीनारायण। माता शबरीकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये शबरीनारायण नगर बसाया गया, जो कालान्तरमें शिवरीनारायण हो गया है। माता शबरी की अनन्य भक्तिभाव से भीगी इस पावन धरा पर शिवरीनारायण के पास खरोद में दुनिया का एकमात्र शबरी मन्दिर स्थित है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार रामायणकाल से ही यहाँ शबरी जी का आश्रम है। ऐसी मान्यता है कि भगवान् जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को शिवरीनारायण से ही ओड़िसा के जगन्नाथपुरीमें लाया गया है। कहा जाता है कि हर साल माघीपूर्णिमा के दिन भगवान् जगन्नाथ यहाँ नारायणरूप में विराजते हैं। छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से विख्यात शिवरीनारायण प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण एक सुन्दर नगरी है।
शिवरीनारायण – देवालय एवं परम्पराएँ
प्रो० अश्विनी केसरवानी जी ने अपनी पुस्तक ‘शिवरीनारायण-देवालय एवं परम्पराएँ’ में लिखा है –
चारों दिशाओंमें अर्थात् उत्तर में बदरीनारायण, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकानाथ स्थित हैं। लेकिन मध्य में ‘गुप्तधाम’ के रूप में शिवरीनारायण स्थित हैं। याज्ञवल्क्यसंहिता एवं रामावतार – चरित्र में उल्लेख है कि भगवान् श्रीरामचन्द्र जी का नारायणी रूप यहाँ गुप्त रूप से विद्यमान है। इसलिये शिवरीनारायण को गुप्त तीर्थधाम भी कहा जाता है।
यह नगर सतयुग में बैकुण्ठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था, जो आज शिवरीनारायण के नाम से जाना जाता है।
श्रीनारायण क्षेत्र’ और श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र
मैकल पर्वत-शृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौन्दर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कन्दपुराण में इसे ‘श्रीनारायण क्षेत्र’ और ‘श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र’ कहा गया है।
प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहाँ एक बृहद् मेले का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्रि तक चलता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान् नारायण जी के दर्शन करने के लिये आते हैं। शिवरीनारायण मन्दिर को बड़ा मन्दिर एवं नर- नारायण मन्दिर भी कहा जाता है। यह मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला एवं मूर्तिकलाका बेजोड़ नमूना है।
शिवरीनारायण मन्दिर का निर्माण किसने कराया था ?
ऐसी मान्यता है कि इसका निर्माण राजा शबर ने करवाया था। यहाँ नौवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक की प्राचीन मूर्तियों की स्थापना है। मन्दिर की परिधि १३६ फीट तथा ऊँचाई ७२ फीट है, जिसके ऊपर १० फीट के स्वर्णिम कलश की स्थापना है।
शायद इसीलिये इस मन्दिर का नाम बड़ा मन्दिर भी पड़ा है। सम्पूर्ण मन्दिर अत्यन्त सुन्दर तथा अलंकृत है, जिसमें चारों ओर पत्थरों पर नक्काशी करके लता-वल्लरियों एवं पुष्पों से सजाया गया है। मन्दिर अत्यन्त भव्य दिखायी देता है।
शिवरीनारायण के कई अन्य मन्दिर
शिवरीनारायण में कई अन्य मन्दिर भी हैं, जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूँकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है। इसलिये उन समाज के लोगोंद्वारा यहाँ कई मन्दिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार भी कराया गया है। वैसे यहाँ के बहुसंख्यक मन्दिर भगवान् विष्णु के विभिन्न अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ भी माना गया है।
इसके अलावा यहाँ शैव और शाक्त परम्परा के अनेक प्राचीन मन्दिर भी हैं। इनमें प्रमुख हैं-माँ अन्नपूर्णा मन्दिर, भगवान् नारायण मन्दिर, लक्ष्मी-नारायण मन्दिर, चन्द्रचूड़-महादेव मन्दिर, केशवनारायण मन्दिर, श्रीराम-लक्ष्मण-जानकी मन्दिर, जगन्नाथ-मन्दिर, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्रीजगदीश मन्दिर, श्रीराम-जानकी मन्दिर, राधाकृष्ण मन्दिर, काली मन्दिर, शीतलामाता मन्दिरऔर माँ गायत्री मन्दिर।
शिवरीनारायण कैसे पहुंचे ?
शिवरीनारायण जिला मुख्यालय जांजगीर-चाम्पा से लगभग ४५, बिलासपुर से ६१, रायगढ़ से १०० और रायपुर से १३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इन चारों ही शहरों से यहाँ सड़कमार्ग से आसानी से पहुँचा जा सकता है।
जांजगीर-चाम्पा, बिलासपुर, रायगढ़ और रायपुर तक ट्रेन से और रायपुर तक सीधे हवाई मार्ग से भी पहुँचा जा सकता है। शिवरीनारायण किसी भी मौसम में जा सकते हैं। यहाँ लोगों को उनके बजट के मुताबिक रहने के लिये धर्मशालाएँ आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं।
शिवरीनारायण से जांजगीर-चाम्पा, बिलासपुर, रायगढ़ और रायपुर तक आवागमन हेतु आसानी से सार्वजनिक एवं निजी वाहन मिल जाते हैं।