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Maharashtra

श्री शारंगधर बालाजी मंदिर, मेहकर

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सृष्टि के साथ उत्पन्न होनेवाली पवित्र नदी पैनगंगा (प्राणहिता) के तटपर श्रीशारंगधर बालाजी की मूर्ति विराजमान है।

श्री शारंगधर बालाजी का ध्यान

कंजाक्षं भुवनैकसुन्दरतनुं भव्यं शशांकद्युतिं,
भ्राजच्छंखगदाब्जचक्रकरजं श्री-भूमिसिद्ध्यान्वितम्।
ब्रह्माद्यैः सनकादिभि: स्तुतपदं भ्रान्तं प्रणीतातटे,
वन्देऽ्हं सततं त्रिविक्रमपदं श्रीशार्ङ्गपाणिं प्रभुम्।

जिन कमलनयन भगवान् का श्रीविग्रह तीनों भुवनों में सर्वाधिक सुन्दर है, जिनकी भव्य देहकान्ति चन्द्रमा की कान्ति-जैसी है। जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म शोभायमान हैं, जो पृथ्वीदेवी एवं श्रीदेवी से समन्वित एवं सिद्धियों से संवलित हैं। ब्रह्मा आदि देवगण तथा सनकादि ऋषिगण जिनके श्रीचरणों का स्तवन करते रहते हैं, जो प्रणीता के तटपर उल्लसित हो रहे हैं; शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले उन प्रभु त्रिविक्रम की मैं सतत वन्दना करता हूँ।

Shri Sharangadhar Balaji Temple

मूर्ति का विवरण

 महाराष्ट्र के जिला – बुलडाणा, तालुका मेहकर में विश्व की सबसे ऊँची यानी साढ़े ग्यारह फुट ऊँची चार फुट चौड़ी और दो फुट जड़ी यह मूर्ति काले रंग के गण्डकी पाषाण (पत्थर) से बनी हुई है।

मूर्ति के साथ श्रीमहालक्ष्मी और श्रीभूदेवी के विराजमान होने से भक्तों को श्रीलक्ष्मीनारायण के दर्शन का लाभ होता है। भगवान् के चरणकमलों में जय और विजय विराजमान हैं। श्री की मूर्ति चतुर्भुज होने के साथ-साथ हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म है, गले में वैजयन्ती माला के साथ कौस्तुभमणि है, हाथों पर हस्तरेखा है, छाती पर भृगुऋषि द्वारा अंकित चरणकमल है। पैर में पैजण तथा चरणों में गरुड़ भगवान् विराजमान हैं।भगवान् कमलपत्र पर विराजमान हैं। भगवान् के मूर्ति के ऊपरी भाग में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भगवान् के विराजमान होने से इन्हें त्रिबालाजी भी कहते हैं।

मूर्ति पर भगवान् के दशावतार भी अंकित हैं, मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह तथा वामन अवतार भगवान् के बायें बाजू में और परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध तथा कल्कि-अवतार भगवान् के दाहिने बाजू में हैं। जो बालाजी भक्त तिरुपति नहीं जा सकते। वे अपनी मनौतियाँ देने के लिये यहाँ आते हैं। इसीलिये इन्हें प्रत्ती बालाजी भी कहते हैं, अपने मन में जो भाव रहते हैं, वह भाव ही श्रीबालाजी के मुखमण्डल पर दिखायी देते हैं। हम खुश हैं तो भगवान् भी खुश दिखते हैं, यदि हम किसी दुःख से नाराज हैं, तो भगवान् भी हमें नाराज दिखायी देते हैं।

श्रीबालाजी महाराज का पोशाक

श्रीबालाजी महाराज को हर वार के अलग अलग पोशाक पहनाये जाते हैं, जैसे बुधवार को सफेद (श्वेत) तो गुरुवार को पीले रंग का। श्रीबालाजी महाराज शुभकार्य सिद्ध करनेवाले और मन की इच्छा पूर्ण करनेवाले होने से इन्हें मराठी भाषा में ‘नवसाला पावणारा बालाजी’ भी कहते हैं। दर्शन करने के बाद लगता है कि मूर्ति भूतलपर आकर स्वयं भगवान् विश्वकर्मा ने बनायी है।

मूर्ति का इतिहास

इस दुर्लभ मूर्ति का इतिहास यह है कि यह मूर्ति ७ दिसम्बर, १८८८ ई०  मार्गशीर्ष शुद्ध पंचमी (नागादी दीपावली) के शुभदिन जमीन में से उत्खनन से निकली है। जबतक यह मूर्ति जमीन में थी, तबतक दाऊला नामक एक आदमी वहीं आस-पास घूमा करता था। कड़ी धूप और ठण्डी में भी रात को वही सोता था, वहाँ बहुत प्रमाण में झाड़ी भी थी; क्योंकि वह नदी का किनारा था।

दाऊला महाराज अंग में चोली तथा छोटी लंगोटी पहनते थे। उनकी यह दिनचर्या देखकर गाँव के आस-पास के देहात के लोग उन्हें कहते थे कि महाराज इस झाड़ी में आप अकेले क्यों रहते हो?

जबाव मिलता था – माझा देव तेथे प्रकटा आहे (मेरे भगवान् वहाँ अकेले हैं) इसीलिए रहता हूँ।

श्री शारंगधर बालाजी का प्राकट्य

उस वक्त अपने देश पर अंग्रेजों का शासन चल रहा था, अंग्रेजों ने सरकारी कार्यालय बनाने के लिये उसी जगह को चुना और वहाँ मजदूरों द्वारा खुदाई का काम प्रारम्भ हुआ, तब अन्दर से आवाज आयी ‘धीरे खोदो मैं अन्दर हूँ।’ मजदूर घबरा गये और गाँव में भागे। थोड़ी देर में गाँव के प्रतिष्ठित लोग सर्वभाषिक विप्र समाज, मारवाड़ी वैश्य, क्षत्रिय समाज, गुजराती लोग वहाँ उपस्थित हो गये और खुदाई का काम सावधानी से होने लगा, थोड़ी ही देर में चंदन की पेरी में चंदन के भूसे के अन्दर श्रीजीकी मूर्ति मिली, साथ में एक ताम्रपत्र भी मिला, भूमि में से सुन्दर मूर्ति मिलने की भूरि-भूरि प्रशंसा गाँव-गाँव में फैल गयी।

अंग्रेजों की पुराणी वस्तु संग्रह करने की आदत से ‘मूर्ति इंगलैण्ड ले जाने के लिये ले आवो‘ ऐसा आदेश बुलडाणा, जिला-कलेक्टर को दिया। ऐसा आदेश आने से गाँव के लोग घबरा गये थे, मगर अंग्रेज रानी विक्टोरिया का जाहीरनामा (आदेश) इस प्रकार था कि जिस मूर्ति की पूजा-अर्चना हो रही है, उस मूर्ति को हाथ मत लगावो। इस आधार पर विप्र समाज ने गाँववालों की मदद से रात को १ बजे प्राणप्रतिष्ठा करके मूर्ति की स्थापना की और पूजा-अर्चना प्रारम्भ कर दी, इसीलिये अंग्रेज मूर्ति को हाथ नहीं लगा सके। परंतु मूर्ति के साथ निकला हुआ ताम्रपत्र ले गये, वह अभी लंदन में है।

इस प्रकार गाँववालों ने भगवान्की कृपा से ही मूर्ति को बचाया है। कुछ दिनों के बाद मन्दिर के पुजारी के स्वप्न में भगवान्ने कहा था कि ‘मेरा भाई वहाँ रह गया है, उसे निकालकर यहाँ ले आओ।’ स्वप्न सच्चा है या झूठा – यह देखने के लिये वहाँ जानेपर एक मूर्ति और मिल गयी, उसे श्रीबालाजी का छोटा भाई कहते हैं। मन्दिर का काम कोरीव पत्थरों से बना हुआ है। आस-पास श्रीगणेश, माँ दुर्गा, केशवराज, नागदेवता और भगवान् शिव के छोटे- छोटे मन्दिर हैं। अग्रवाल समाजके एक सद्गृहस्थ ने अपनी पूरी जायदाद भगवान्के लिये और मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिये अर्पण कर दी है।

गाऊँ का नाम मेहकर कैसे पड़ा ?

कहते हैं कि इस नगरी में मेघंकर और पास के लोणार गाँव में लवणासुर नाम के राक्षस बहुत ही ऊधम मचा लोगों पर अत्याचार कर रहे थे। तब भगवान्के वहाँ प्रकट होकर अपने शार्ङ्ग धनुषसे, जो समुद्रमन्थनसे निकला था, उससे मेघंकर का वध किया था, जब मेघंकर मरणासन्न होने लगा तो भगवान्से कहने लगा – हे भगवन्! मेरे लिये भी कुछ तो करो, तब भगवान्ने उस नगरी का मेहकर नाम रखा। भगवान्ने मेघंकर को मुक्ति देकर शार्ङ्ग धनुष के साथ मेघंकर को अपने सिरमुकुट में धारण किया है।


लवणासुर के वधके बाद वहाँ लोणार गाँव में खारे पानी के सरोवर का निर्माण हुआ है, ऐसा भी कहते हैं, उसे सरकार ने पर्यटक क्षेत्र घोषित किया है, वहाँ प्रतिवर्ष पापड खार (क्षार) निकलता है, जो सरकार के नियंत्रण में है। श्रीबालाजी मन्दिर में प्रतिवर्ष नागादि दीपावली से दत्तजयन्ती तक भगवान्का अवतरण-उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसरपर कथा, प्रवचन, रक्तदान-शिविर, आरोग्य-शिविर आदि आयोजित होते हैं।

उसी प्रकार गोकुल अष्टमी, रामनवमी आदि के उत्सव भी मन्दिर में धूमधाम से होते हैं। विप्र समाज घी और हल्दी देकर पुजारी द्वारा भगवान्की छाती पर मालिश कराकर भृगु ऋषि द्वारा किये गये अपराध की भगवान्से आर्त्तभाव से क्षमा-याचना करता है। भगवान् दयालु हृदय के तो हैं ही, क्षमाशील भी हैं।

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