जन्म और जीवन

लाहिड़ी महाशय का जन्म ३० सितम्बर १८२८ ई० को बंगाल में कृष्णनगर के समीप नदिया जिले के अन्तर्गत घुर्नी ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री गौरमोहन लाहिड़ी और उनकी माता का नाम मुक्तकाशी था। उनका पूरा नाम श्यामाचरण लाहिड़ी था। तन्त्रसाधकों में वे लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध थे। लगभग ३-४ वर्ष की अवस्था से ही उनमें आध्यात्मिक प्रवृत्ति के लक्षण उदित हो गये थे और प्रायः नदिया की बालुकाओं में लिपटे हुए वे ध्यानमग्न पाये जाते थे। 


१८३३ में उनका गाँव जलमग्न हो गया, अतएव उनका परिवार वाराणसी में आकर रहने लगा। इस प्रकार बंगाल में जन्म लेकर भी जीवन का अधिकांश उन्होंने उत्तर प्रदेश की परम पुनीत नगरी काशी में बिताया। अपने विद्यार्थी जीवन में न केवल विद्याध्ययन में बल्कि खेल-कूद में भी आप परम कुशल थे। संस्कृत, बंगला, फ्रेंच और अंग्रेजी का आपने अच्छा अध्ययन किया था। १८४६ में आपका विवाह श्रीमती काशीमुनी से सम्पन्न हुआ और उनके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं।

१८५१ में आपने सेना-विभाग के इंजीनियरिंग विभाग में नौकरी स्वीकार की और १८८६ तक नौकरी करके सेवानिवृत्त हुए। इसी बीच पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने गरुड़ेश्वर मुहल्ले में एक मकान भी खरीदा और मृत्युपर्यन्त वहीं रहकर जिज्ञासु साधकों को क्रियायोग की दीक्षा दिया करते थे। आपने २६ सितम्बर १८९५ को यह नश्वर शरीर त्याग दिया और तन्त्रसाधकों की श्रुतियों के अनुसार अपने गुरुदेव की सदा-सर्वदा वर्तमान रहनेवाली गुरुमण्डली में सम्मिलित हो गये।


आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ

१८६१ का मधुमास था। श्यामाचरण लाहिड़ी दानापुर में उस समय सेना-विभाग में आंकिक के पद पर कार्य कर रहे थे। अचानक उन्हें बताया गया कि तार द्वारा उनका स्थानान्तरण रानीखेत होने का आदेश प्राप्त हुआ है और वहाँ सेना का एक नया कार्यालय स्थापित किया जा रहा है। श्यामाचरण लाहिड़ी ने तुरंत आदेश का पालन किया और वे रानीखेत पहुँच गये। रानीखेत की पहाड़ियों का एकान्त जैसे उन्हें बार-बार खींचता हो और वे कार्यालय के कार्य सम्पन्न करने के बाद प्रायः पहाड़ों पर घूमा करते।

कुछ ही दिनों बाद एक दिन दूर पहाड़ी से उन्हें अपने को पुकारने का स्वर सुनायी पड़ा। थोड़ा भ्रम में झिझकते हुए वे उस ओर बढ़े। उस स्थान के समीप पहुँचने पर देखा तो एक कन्दरा के पास एक युवा संन्यासी मुसकराता हुआ खड़ा था, उनके स्वागतार्थ अपनी लम्बी भुजाओं को फैलाये। उस युवा संन्यासी ने हिंदी में कहा-‘मैं ही तुम्हें बुला रहा था। आओ, इस गुफा में बैठो।’जब वे दोनों गुफा में प्रवेश कर गये तो युवा संन्यासी ने गुफा में रखे हुए कम्बल और पूजा-सामग्रियों की ओर इशारा करते हुए पुनः हिंदी में श्यामाचरण जी से पूछा –

‘लाहिड़ी! क्या तुम इन वस्तुओं को पहचान रहे हो?’ श्यामाचरण जी ने कुछ झिझकते हुए उत्तर दिया – ‘नहीं।’ और इस विचित्र रहस्यात्मक परिस्थिति के अटपटेपन से शीघ्र मुक्ति पाने के लिये कहा कि ‘उन्हें कार्यालय में कुछ कार्य है, अतः शीघ्र वापस जाना है।’ युवक संन्यासी ने मुसकराते हुए अबकी बार अंग्रेजी में कहा, ‘कार्यालय तुम्हारे लिये यहाँ बुलाया गया है, कार्यालय के लिये तुम नहीं।

तुम्हारे बड़े अधिकारी को तार भेजकर तुम्हें बुलवाने की प्रेरणा देनेवाला मैं ही था।’ मन को प्रेरित करने की इस घटना का तात्त्विक विवेचन प्रस्तुत करते हुए युवा साधु ने कहा- ‘जब किसी व्यक्ति का मन मानवमात्र से एकात्मता का बोध प्राप्त कर लेता है, तब वह किसी भी मन से अपनी इच्छा की पूर्ति करा लेता है।’

और, जैसे श्यामाचरण जी की पूर्वस्मृति को कुरेदते हुए उन्होंने कहा – ‘तुम्हें इन वस्तुओं को पहचानना चाहिये ही।’ और इन शब्दों के साथ ही उन्होंने श्यामाचरणजी के मस्तक पर अपने हाथों का स्पर्श दिया।

स्पर्श के साथ-साथ श्यामाचरण के मस्तिष्क में स्मृति की बिजली कौंध गयी; उनकी स्मृति में एक-पर-एक दृश्य आने लगे और वे अस्पष्ट शब्दों में बोल उठे-‘आप मेरे गुरुदेव, बाबाजी हैं- आप सदा-सर्वदा मेरे अपने रहे हैं,

आपके साथ मैंने पूर्वजन्म के कई वर्षों को बिताया है -यह मेरे उपयोग में आनेवाला कम्बल है और घटना के दूसरे पक्षको पूरा करते हुए युवा सद्गुरु ने कहा-‘तीन दशाब्दियों से अधिक मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा में बिताये हैं। कृतकर्मों के परिणामस्वरूप तुम्हें हठात् अपनी देह छोड़नी पड़ी और तुम जीवन के परे मृत्यु की गोद में चले गये। तुमने मुझे अपनी दृष्टि से ओझल कर दिया था; किंतु, मेरी दृष्टि तुम पर बराबर लगी रही।

अन्धकार, प्रकाश, तूफान, शून्यता, उथल-पुथल के बीच में, पक्षी के नये बच्चे को जैसे उसकी माँ उसकी हर कच्ची उड़ान में सँभालती रहती है, उसी प्रकार मैं तुम्हे सँभालता रहा। तुम्हारे जन्म के बाद तुम्हारी इस पक्वावस्था की प्रतीक्षा करता रहा। तुम जब बच्चे थे तो नदिया की रेतों के बीच तुम्हारी हर ध्यानमुद्रा को अलक्ष्य रूप में मैं प्रेरित करता। तुम्हारी पूजा के उपकरणों को इन वर्षो में मैं यत्नपूर्वक सँभाले रहा।’ भावविभोर श्यामाचरण सद्गुरु की करुणामूर्ति को अपलक देखते रहे और मन-ही-मन सद्गुरु के दिव्य प्रेम में अवगाहन करते रहे।

थोड़ी देर की आयी हुई इस भाव-भीनी निस्तब्धता को तोड़ते हुए युवक सद्गुरु बोले-‘तुम्हें शुद्धीकरण की आवश्यकता है’- और एक पात् रमें रखे हुए पेय की ओर इशारा करते हुए उन्होंने आदेश दिया-‘इसे पी लो और पहाड़ी के नीचे बहती हुई नदी में स्नान करके वहीं पड़े रहो।’ श्यामाचरण ने आदेश का यथावत् पालन किया। पर्वतीय हिमशीतल झकोरे शरीर से छूकर वापस चले जाते और अन्तर की गरमी के सुखद अनुभव को और प्रच्छन्न कर देते, मानो बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति में साम्य उपस्थित करने के लिये संघर्ष छिड़ गया हो।

यह क्या श्यामाचरण का मन तेजी से बदल रहा था-गोगाश नदी की हिमशीत लहरियाँ उनके शरीर में सिहरन पैदा कर देतीं, शेरों का गर्जन समीप ही सुनायी पड़ता, किंतु श्यामाचरण ब्राह्य प्रकृति की भयानकता से अप्रभावित अन्तर की आध्यात्मिक गुदगुदी से खेलते हुए, सद्गुरु के आदेश की प्रतीक् षामें पड़े थे। किसी की पगध्वनि से आकृष्ट होकर देखा तो कोई उन्हें हाथों का सहारा देकर जमीन से उठा रहा था और कह रहा था- ‘भाई! चलो, गुरुदेव तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ और वे दोनों जंगल की ओर बढ़ चले।


वे थोड़ी दूर चले कि उनको प्रभातकालीन प्रकाश के समान एक ज्योतिपुंज दिखायी पड़ा। श्यामाचरणजी ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में सहयात्री से प्रश्न किया-‘क्या प्रभातकालीन सूर्य निकल रहा है? अभी तो रात्रि शेष होनी चाहिये।’ पथदर्शक ने मुसकराते हुए कहा-‘यह अर्द्धरात्रि है। सामने दिखायी पड़नेवाला प्रकाश स्वर्ण- आभायुक्त एक आवास है। जीवन के किन्हीं वर्षों में आपने एक ऐसे ही महल की इच्छा की थी और उसका संस्कार बना लिया था। आज गुरुदेव आपकी इस एकमात्र इच्छा (संस्कार)-को संतुष्ट करके आपको सर्वदा के लिये कर्मबन्धन से मुक्त करना चाहते हैं।

यही भवन आप की दीक्षा का स्थान होगा।’ धीरे-धीरे इस दिव्य भवन में दोनों ने प्रवेश किया। पूर्णतः सुसज्ज इस भवन में अनेक साधक ध्यानमग्न बैठे थे। एक दिव्य वातावरण से आपूरित इस भवन के निर्माण के विषय में प्रश्न करनेपर पथप्रदर्शक ने कहा-‘यह सम्पूर्ण विश्व भूमामन की विराट् कल्पना में निर्मित है और इसकी धारकशक्ति परमाणुओं को उनकी इच्छाशक्ति संयुक्त किये रहती है।  गुरुदेव उसी भूमा-मन से अपने को एकाकार कर चुके हैं, अतः अपनी इच्छा से वे भी किसी भी रूप का निर्माण कर सकते हैं। यह भवन भी ठीक उसी प्रकार आपेक्षिक सत्य है, जैसे वस्तुजगत्।

गुरुदेव ने अपनी चित्त-धातु से भवन का निर्माण किया है और उसके प्रत्येक अणु- परमाणु को वे अपनी इच्छाशक्ति से धारण किये हुए हैं। एक स्वर्णपात्र और उसमें जटित रत्नों की ओर इशारा करते हुए पथप्रदर्शक ने कहा-‘लो इसे देखो,’ भौतिक जगत्की सभी परीक्षाओं मे यह भौतिक जगत्के उपादानों के ही समान दिखेगा।’ और श्यामाचरणजी ने उसकी थोड़ी – बहुत परीक्षा करके देखा वह वास्तविक था।

जब वे युवा योगी के पास पहुँचे तो उन्होंने श्यामाचरण जी से पूछा-‘लाहिड़ी! क्या तुम अब भी स्वर्णमहल की कल्पना करोगे? जागो, आज तुम्हारे जीवन की सभी इच्छाएँ सदा के लिये पूर्ण होने जा रही हैं।

क्रियायोग की दीक्षा द्वारा आध्यात्मिक जगत्में प्रवेश करो।’ दीक्षा समाप्त हुई और उसके साथ ही भौतिक जगत्का कल्पनामहल सर्वदा के लिये श्यामाचरण जी के मन से समाप्त हो गया। सद्गुरु के आदेशानुसार उसी कन्दरा में उसी कम्बल पर एक सप्ताह तक श्यामाचरण जी ने साधना की

और जब पूर्वजन्म की सम्पूर्ण मनःस्थिति का उदय हो गया तो आशीर्वाद देते हुए और भावी कार्यक्रम का संकेत करते हुए युवा योगी ने कहा- ‘मेरे पुत्र! इस जीवन में तुम्हारा कार्यक्षेत्र अब जन-संकुल समाज के बीच होगा। कई जन्मों तक एकान्त साधना के द्वारा उपार्जित शक्तियों के साथ तुम्हें जन-समाज में मिलकर

रहना है। इस जीवन में विवाह और पूर्ण उत्तरदायित्वों के बाद ही जो तुम मुझसे मिले हो, उसके पीछे एक निश्चित उद्देश्य है। तुम्हें अलक्ष्य रहकर साधना करने की इच्छा का परित्याग करना होगा। तुम्हारा कार्यक्षेत्र जन-समाज है, जहाँ तुम्हें एक गृहस्थ योगी के आदर्श की स्थापना करनी है, उनमें यह आत्मविश्वास जगाना है कि वे किसी भी उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि के सर्वथा योग्य हैं। अनेक सांसारिक मनुष्यों की आर्त पुकार अनसुनी नहीं हुई है। तुम्हें क्रियायोग के प्रचार द्वारा अनेक व्यक्तियों को आध्यात्मिकता प्रदान करना है।’

श्यामाचरणजी अनेकानेक जन्मों से गुरुसम्पर्क को पाकर छोड़ना नहीं चाहते थे, किंतु योगी युवक ने आदेश दिया-‘हमारे लिये कभी कोई अलगाव नहीं है। मेरे प्रिय! तुम जहाँ भी मुझे बुलाओगे, मैं तुम्हारे सम्मुख तुरंत उपस्थित हो जाऊँगा।’


आशीर्वाद का प्रयोग

लगभग दस दिनों बाद श्यामाचरणजी अपने कार्यालय वापस लौटे। वहाँ के लोग यह समझते रहे कि श्यामाचरण रानीखेत के जंगलों में मार्ग भूल गये थे। किंतु उन्हें क्या पता था कि वे मार्ग भूले नहीं, बल्कि वह मार्ग पा गये-जो मार्ग अनन्त आनन्द का शाश्वत मार्ग है, जिसे पाने के लिये अनेक जन्मों की साधना आवश्यक है। श्यामाचरणजी के वापस लौटने के साथ-ही-साथ शीर्ष कार्यालय का पत्र उन्हें प्राप्त हुआ, जिसमें यह आदेश दिया गया था कि वे दानापुर कार्यालय वापस चले आयें; क्योंकि उनका स्थानान्तरण भ्रमवश हो गया था।

रानीखेत से दानापुर लौटते समय रास्ते में मुरादाबाद में एक बंगाली परिवार (मोइत्रा महाशय)-के यहाँ श्यामाचरण जी दो-एक दिनों के लिये रुके। वहाँ युवा मित्रों की मण्डली में अध्यात्म-विषयक चर्चा होने पर मोइत्रा महाशय ने कहा कि ‘आजकल वास्तविक संत कहाँ उपलब्ध हैं।’ इसपर उत्तेजित होकर श्यामाचरणजी ने कहा कि ‘भारतभूमि कभी भी उच्च शक्तिसम्पन्न संतों से रहित नहीं रही है और आज भी वैसे संत मौजूद हैं।’ इसी संदर्भ में उन्होंने अपने पूर्वानुभवों की चर्चा की।


उपस्थित मण्डली ने उन्हें समझाते हुए कहा कि ‘उनका मस्तिष्क पहाड़ के एकान्त में भयाक्रान्त होने के कारण भ्रमित हो गया था।’ सत्य के प्रत्यक्ष अनुभवों से आपूरित श्यामाचरणजी ने अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिये योगी सद्गुरु के उस आशीर्वाद को बताया, जिसके द्वारा उन्होंने श्यामाचरणजी को यह आशीर्वाद दिया था कि उनके आवाहित करने पर वे प्रत्यक्ष हो सकते हैं। उपस्थित लोगों ने उसका प्रमाण माँगा और तब श्यामाचरणजी ने एकान्त कमरे में सद्गुरु को आवाहित करना प्रारम्भ किया मित्र-मण्डली कमरे के द्वार पर चौकसी कर रही थी।

थोड़े ही समय में कमरा प्रकाश से भर गया और युवा संन्यासी देश, काल, पात्र के बन्धनों को तोड़ते हुए प्रकट हुए; किंतु उनकी मुद्रा गम्भीर थी। उन्होंने किंचित् गम्भीरतापूर्वक कहा, ‘लाहिड़ी! क्या तुमने मुझे एक खेल के लिये बुलाया है? आध्यात्मिक सत्य वास्तविक जिज्ञासुओं के लिये है, न कि किसी व्यक्ति की साधारण उत्सुकता की शान्ति के लिये।’

श्यामाचरण जी को अपनी भूल का भान हो गया, किंतु पुनः प्रार्थना करते हुए उन्होंने निवेदन किया कि ‘उनका उद्देश्य नास्तिकों को आस्तिक बनाने का एक प्रयोग था। इसलिये उसको सफल बनाकर ही वे जायँ।’ उनकी यह प्रार्थना स्वीकृत तो हुई अवश्य, किंतु इस शर्त पर कि भविष्य में सद्गुरु आवश्यकता समझकर ही प्रकट होंगे।  आदेश पाकर श्यामाचरण जी ने द्वार उन्मुक्त किया और विस्फारित नेत्रों से सम्पूर्ण मण्डली ने सद्गुरु के दर्शन किये;

किंतु इतनेपर भी उनमें से एक लौकिक ज्ञान की उद्दण्डता से प्रेरित होकर बोल उठा-‘यह तो सामूहिक सम्मोहन है, यह वास्तविकता नहीं है; क्योंकि कोई भी हमारी जानकारी के बिना कमरे में प्रविष्ट ही कैसे होता?’ युवा साधु ने हँसते हुए सबको अपने मांसल शरीर का स्पर्श दिया और विगत-मोह युवकमण्डली दण्डायमान होकर प्रणत हो गयी। सद्गुरु ने अपनी उपस्थिति को और प्रमाणित करने के लिये कहा कि ‘जलपान के लिये हलुआ तैयार करो और जलपान तैयार होने तक वे विभिन्न विषयों पर वार्ता करते रहे, सबके साथ जलपान किया और सबके सामने ही चित्तद्वारा सृष्ट शरीर को एक विचित्र ध्वनि में विलीन कर दिया।


इन पंक्तियों के पाठक भी इसे सम्भवतः दन्तकथा ही समझते हों; किंतु किसी घटना को यद्यपि ऐतिहासिकता का प्रमाण-पत्र इतिहास विभाग या पुरातत्त्व विभाग ही देने का दावा करता है, फिर भी इस घटना का विवरण जिन पुस्तकों में प्राप्य है, उनका ही प्रमाण साहित्य और दर्शन का शोधकर्ता दे सकता है। इन घटनाओं का विशद विवरण तथा श्यामाचरण जी के विषय में दो पुस्तकों में तथ्य उपलब्ध हैं।

१९४१ में प्रथम बार एक पुस्तक बंगाल में ‘श्रीश्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय’ नाम से प्रकाशित हुई, जिसमें उनके जीवन का सविस्तार वर्णन है। दूसरी पुस्तक ‘श्रीयोगानन् दकी आत्मकथा’ है, जो ‘एक योगीकी आत्मकथा’ नाम से प्रथम बार कैलीफोर्निया की एक प्रकाशन संस्था द्वारा १९४६ में प्रकाशित हुई थी और दूसरी बार जैको पब्लिशिंग हाउस, बम्बई द्वारा १९६३ में प्रकाशित हुई थी। इन दो सूत्रों के अतिरिक्त तन्त्रसाधकों की व्यक्तिगत चर्चाओं में श्रीलाहिड़ी महाशय और उनके गुरुदेव के विषय में कुछ तथ्य प्राप्त हुए हैं।

लेखक को ऐसे तन्त्रसाधकों का साक्षात्कार हुआ है, जिन्होंने लाहिड़ी महाशय से साक्षात्कार किया है और उनके तथा उनकी परम्पराओं के वे प्रत्यक्षदर्शी थे।


कुछ श्रुतियाँ और सद्गुरु

लाहिड़ी महाशय तथा उनके युवागुरु, जो ‘बाबाजी’ नाम से प्रसिद्ध हैं, तारकब्रह्म की उस संस्था के नाम से जाने जाते हैं, जो सदा-सर्वदा जिज्ञासु साधकों को योग और तन्त्र की साधना बताकर उनका कल्याण किया करते हैं। कहते हैं बाबाजी आज भी अपनी मण्डली के साथ भारतवर्ष में एक ऐसी तान्त्रिक क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, जो भारतवर्ष के इतिहास में केवल तीन बार सम्पन्न हुआ है, एक तो सदाशिव के रूप में, दूसरे महापुरुष श्रीकृष्ण के रूप में और तीसरे महापुरुष बुद्ध के रूप में।

वैसे अलक्ष्यरूप में आपने ही शंकराचार्य को काशी में ब्राह्मी साधना की दीक्षा दी थी, जमालपुर के जंगलों में बाबा गोरखनाथ को तान्त्रिक दीक्षा दी थी और श्रीरामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी जी को दीक्षा दी थी। आज भी बाबा नाम से पुकारने पर साधक उनकी कृपा आकर्षित करते हैं और यदि उन्मुक्त दृष्टि से ढूँढ़ें तो उन्हें पा भी सकते हैं।